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________________ भुजगारबंधे श्रप्पा हुआ णुगमो ३६३ ८२६. भवसि० ओघं । अन्भवसि • मदि ० भंगो । णवरि मिच्छ० अवत्तव्वं णत्थि । ८३० सम्माइ० - खइगस० ओधिभंगो। णवरि खड्गे देवायु ० मणुसि० भंगो । वेदगे धुविगाणं सव्वत्थो० भुज० - अप्पद० । अवट्टि० असंखेज्ज० । सेसं ओभिभंगो । उवसम ० ओधिभंगो । णवरि तित्थय० मणुसि० भंगो । सासणे धुविगाणं देवभंगो । सेसाणं सादभंगो | णवरि ओरालि ०-ओरालि ० अंगो० सव्वत्थो ० अवत्त० । भुज०-अप्पद ० असंखेज ० । अवडि• असंखेज्ज ० | सम्मामि ० सासण० भंगो । किंचि विसेसो । मिच्छादिट्ठि० मदि० मंगो । I ८३१. सणि० मणजो गिभंगो । असण्णीसु ओरालि०-ओरालि० अंगो० ओघं । सेसं मदि० भंगो । आहार० ओघं । अणहार० कम्मइगभंगो । एवं अप्पाबहुगं समत्तं । एवं भुजगारबंध समत्तो । ८२६. भव्य जीवोंके ओके समान भङ्ग हैं | अभव्य जीवों में मत्यज्ञानियोंके समान भङ्ग हैं । इतनी विशेषता है कि मिध्यात्वका अवक्तव्य पद नहीं है । ३०. सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें देवायुका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है । वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों में भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । उपशम सम्यग्दृष्टि जीवों में अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग हैं । इतनी विशेषता है कि तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यनियोंके समान है । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग देवोंके समान है । शेष प्रकृतियोंका भंग साता वेदनीयके समान है । इतनी विशेषता है कि औदारिक शरीर और औदारिक आङ्गोपाङ्गके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके समान भङ्ग है । किन्तु यहाँ कुछ विशेषता है । मिध्यादृष्टि जीवों में मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । ८३१. संज्ञी जीवोंमें मनोयोगी जीवोंके समान भङ्ग हैं । असंज्ञी जीवों में औदारिक शरीर और दारिक आङ्गोपाङ्ग का भङ्ग ओधके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है । आहारक जीवों में ओघके समान भङ्ग है । अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है । Jain Education International इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार भुजगारबन्ध समाप्त हुआ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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