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________________ ३६२ महाबंधे हिदिबंधाहियारे ___ ८२५. दक्खुदंस० तसपज्जत्तभंगो। अचक्खुदं० ओघं। ओधिदं० ओधिणाणिभंगो। ८२६. किण्ण णील-काऊसु तिरिक्खोघं । णवरि किण्ण-णीलासु तित्थय० मणुसिभंगो । काऊए णिरयभंगो। ८२७. तेऊए धुविगाणं सव्वत्थो० भुज०-अप्प० । अवट्ठि० असंखेज्ज । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-बारसक०-देवगदि०४-ओरालि०-तित्थय० सव्वत्थो० अवत्त । भुज० अप्प० असंखें । अवढि० असंखें। सेसाणं सव्वत्थोवा अवत्त० । भुज०अप्प० संखेज्ज० । अवट्ठि० असंखेज्ज । आहारदुगं ओघं । तिरिक्ख-देवायु० विभंगमंगो । मणुसायु० देवभंगो । एवं पम्माए वि । णवरि ओरालि०अंगो देवगदिभंगो।। ८२८. सुकाए पंचणा०-णवदंस मिच्छत्त ०-सोलसक०-भय-दुगुं०-दोगदि-पंचिंदि०चदुसरीर-दोअंगो०-वण्ण०४-दोआणु०-अगु०४-णिमि० तित्थय-पंचंत० सव्वत्थोवा अवत्त । भुज-अप्पद० असंखेन्ज । अवट्ठि० असंखेज। सेसाणं पम्माए भंगो। दोआयु. मणुसि०भंगो। २५. चतुदर्शनवाले जीवोंमें त्रसपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। अचक्षुःदर्शनवाले जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। अवधिदर्शनवाले जीवोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। ८२६. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंमें सामान्य तिर्यश्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नील लेश्यावाले जीवोंमें तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है । कापोत लेश्यावाले जीवोंमें तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है। ८२७. पीत लेश्यावाले जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। स्त्यानगृद्धि तीन. मिथ्यात्व. बारह कपाय, देवगति चतुष्क, औदारिक शरीर और तीर्थंकर प्रक्रतिके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है । तिर्यश्चायु और देवायुका भङ्ग विभङ्गज्ञानियोके समान है । मनुष्यायुका भङ्ग देवोंके समान है। इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंमें भी जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि औदारिक आङ्गोपाङ्गका भङ्ग देवगतिके समान है। २८. शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, दो गति, पञ्चेन्द्रिय जाति, चार शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, निर्माण, तीर्थंकर और पाँच अन्तरायके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे भजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेप प्रकृतियोंका भङ्ग पद्म लेश्याके समान है । दो आयुओंका भङ्ग मनुष्यिनियों के समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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