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________________ उक्कस्सफोसणपरूवणा २१७ सबलो० । बादरवणप्फदि-णियोदाणं पज्जतापज्जत्ता. थावरपगदीणं ज. लो. असंखेज्ज० । अज० सव्वलो०। सेसाणं पगदीणं ज० अज० लोग असंखेज्ज । सुहुम० दो वि पदा सव्वलो० । वादरवणफदिपत्ते० बादरपुढविभंगो । ४७७. ओरालियमि० तिरिक्ख-मणुसायु-मणुसगदि-मणुसाणु-देवगदि०४--तित्थय०-उच्चा० ओघ । सेसाणं तिरिक्खोघं । एवं कम्मइ०-प्रणाहारग ति। मदि०-सुद०असंजतिएिण-अब्भवसि०-मिच्छादि०-प्रसारण तिरिक्खोघ । सेसाणं णिरयादि याव सएिण० संखेज्जासंखेज्जरासीणं जह० अज० लो० असंखेज्ज । एवं खेत्तं समत्तं फोसणपरूवा __४७८. फोसणं दुवि०-जह उक्क० । उक्कस्सए पयदं । दुवि०-मोघे० आदे० । ओघे० पंचणा--णवदंसणा-प्रसादावे-मिच्छ०-सोलसक०--णqस०-अरदि-सोग-भयदुगुं०-तिरिक्खग-अोरालि०--तेजा०-३०-हुंड०-वण्ण०४--तिरिक्खाणु०--अगु०४-- उज्जो०-बादर-पजत्त-पत्त०-प्रथिर-असुभ-भग-दुस्सर-अणादे०-जस०-अजस०णिमि०-णीचा०-पंचंत० उक्कस्सहिदिबंधगेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्ज० अट्ट-तेरसचौदसभागा वा देरणा | अणु० सव्वलो० । सादा०-हस्स जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। बादर वनस्पतिकायिक और निगोद तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें स्थावर प्रकृतियोंकी जधन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थिति के बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सूक्ष्मके दोनों ही पदोंका क्षेत्र सब लोक है । बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवोंका भङ्ग बादर पृथिवीकायिक जीवों के समान है। ४७७. औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगति चतुष्क, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्र इनका भङ्ग ओघके समान है । शेष प्रकृतियोंका भन्न सामान्य तिर्यचोंके समान है। इसी प्रकार कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंही जीवोंके अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तियञ्चोंके समान है। शेष नरक गतिसे लेकर संज्ञीतक संख्यात और असंख्यात राशिवाली सब मार्गणाओंमें जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इस प्रकार क्षेत्र समाप्त हुआ। स्पर्शन प्ररूपणा ४७८. स्पर्शन दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तियञ्चगति औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसस्थान, वणेचतुष्क, तियेचगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, उद्योत, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दु.स्वर, अनादेय, कीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग, कुछ कम आठबटे चौदहराजू और कुछ कम तेरह वटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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