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________________ २२८ महाबंधे विदिबंधाहियारे वेउव्वियछ० ओघ । तिरिक्खगदि-एइंदि०-पोरालि०-तिरिक्खाणु०-थावर ० उक्क० अह-णवचों । अणु० अट्ठचौ० सव्वलो० । पंचिदि०-अप्पसत्थ०-तस-दुस्सर० उक्क० छच्चोंदस० । अणु० अट्ठ-बारह० । उज्जो०-जस० उक्क० अणु० अट्ठ-णवचोदस० । बादर० उक० अणु० अट्ठ-तेरहचौद्दस । सुहुम-अपज्जत्त-साधारण० उक्क० अणु० लोग० असंखे० सव्वलो० । पुरिसेसु इस्थिभंगो । णवरि पंचिंदि०-अप्पसत्थ०-तसदुस्सर० उक्क० अणु० अट्ठ-बारहचोदस० । तित्थय० ओघं । ४६५, णवूस० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छत्त-सोलसक०-इत्थिपुरिस०-णवूस०-अरदि-सोग-भय-दुगुं०-तिरिक्खग०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०. छसंठा---पोरालि० अंगो०-छसंघ०-वण्ण०४--तिरिक्खाणु०-अगु०-दोविहा०-उज्जो०तस०४-अथिर - असुभ-सुभग-भग-सुस्सर--दुस्सर--प्रादें -अणादे०-अजस०-णिमि०णीचा०-पंचंत० उक० छच्चोंदस० । अणु० सव्वलो० । सादावे०-हस्स-रदि-एइंदि०थावरादि ४-थिर-सुभ० उक्क० लो० असंखें सव्वलो० । अणु० सव्वलो० । एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और स्थावर इनकी उत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पञ्चेन्द्रिय जाति, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःस्वर इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत और यश.कीर्तिकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन या है। बादर प्रकृतिकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पुरुषवेदी जीवोंमें स्त्रीवेदी जीवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय जाति, अप्रशस्त विहायोगति, बस और दुस्वर इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भंग ओघके समान है। ४९५. नपुंसकवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व; सोलह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, दो विहायोगति, उद्योत, त्रस चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, हास्य, रति, एकेन्द्रियजाति, स्थावर आदि चार, स्थिर और शुभ इनकी उत्कृष्ट स्थितिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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