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________________ उक्करस फोसण परूवणा २२६ दोषयु० - प्रहारदुग - तित्थय ० 0 क० अणु ० खेत्तभंगो । तिरिक्खा यु- मणुसग दि-तिष्णिजादि- मसाणु० - श्रादाव उच्चागो० उक्क० लो० असंखेज दि० । अणु० सन्चलो० । मणुसायु० उक्क० खे० । अणु ० लो० असंखे० सव्वलो० । वेउव्वियछ० श्रघो । उज्जो०१०- जस० उक्क० तेरहचद्दस० । अणुक्क० सव्वलो० । श्रवगदवेदे खे० भंगो कोधादि०४ श्रधं । ४९६, मदि० - सुद० श्रघं । वरि देवगदि - देवाणु० उक्क० ० । अणु० पंचचौद्द० । वेउब्वि० - वेउच्चि ० अंगो० उक० छच्चोंदस० । अणु एक्कारसचद्दस० । विभंगे पंचणा० - वसणा० - श्रसादावे० - मिच्छ०- सोलसक०- पंचणोक० - तेजा०-क०हुंड सं० - वरण ०४ - प्रगु०४-- पज्जत्त- पत्तेय० - श्रथिरादिपंच - णिमि० णीचा० - पंचत० उक्क० अट्ठ-तेरह० । अणु० अट्ठ-तेरह० सव्वलो० । सादावे० - हस्स -रदि-थिर- सुभ० उक्क० अणु० अट्ठचों० सव्वलो० । इत्थि० - पुरिस० - पंचिदि० - पंचसंठा०-ओरालि •. बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । दो आयु, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । तिर्ययु, मनुष्यगति, तीन जाति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप और उच्चगोत्र इनकी उत्कृष्ट स्थिति ब जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्र के समान है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिक छहकी अपेक्षा स्पर्शन ओके समान है । उद्योत और यशः कीर्तिकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अपगतवेदी जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्र के समान है । तथा क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंमें ओघके समान हैं । ४६६. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि देवगति और देवगत्यानुपूर्वीकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिके वन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । वैक्रियिक शरीर और वैयिक आङ्गोपाङ्गकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवोंने कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विभंगज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, पाँच नोकपाय, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, व चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवों म आठ वटे चौदह राजू, कुछ कम तेरह वटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर और शुभ इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ वटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुपवेद, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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