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________________ सिरिभगवंतभूदबलिभडारयपणीदो महाबंधो विदियो विदिबंधाहियारो बंधसरिणयासपरूवणा १. सएिणयासं दुविधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सं दुविध-सत्थाणं परस्थाणं च । सत्थाणे पगर्द । दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० आभिणिबोधिगणाणावरणीयस्स उक्कस्सहिदिबंधंतो चदुएणं णाणावरणीयाणं णियमा बंधगो। तं तु० 'उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा। उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयूणमादि कादण याव पलिदोवमस्स असंखेन्जदिभागहीणं बंधदि । एवं चदुरणं णाणावरणीयाणं पवरणं दंसणावरणीयाणमएएमएणं । तं तु० । ___ बन्धसन्निकर्षप्ररूपणा १. सन्निकर्ष दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट सन्निकर्ष दो प्रकारका हैखस्थान और परस्थान । स्वस्थान सन्निकर्षका प्रकरण है। वह दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार झातावरणीय कौका नियमसे बन्ध करनेवाला होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट भी करता है और अनुत्कृष्ट भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट करता है, तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग हीन तक करता है। इसी प्रकार चार शानावरणीय और नौ दर्शनावरणीय कर्मोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु वह उत्कृष्ट भी करता है और अनुत्कृष्ट भी करता है। यदि अनुस्कृष्ट करता है, तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है। 1. मूलप्रतौ उक्कस्स वा अणुक्कस्स वा इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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