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________________ ४३८ महाबँधे द्विदिबंधाहियारे ० हाणी - अवत्त० जह० श्रंतो ०, उक्क० छावट्ठि० साग० सादि० । सादावे० जसगि० चत्तारिवड्डि- हाणि अव०ि णाणाव • भंगो । अवत्त० जह० उक० अंतो । असादादिदस० सादभंगो | कसा० तिण्णिवड्डि- हाणि अवट्ठि ० मणुसभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तैंतीसं सा० सादि ० | दोआयु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीस सा० सादि० । मणुस - दिपंचगस्स तिण्णिवड्डि-हाणि अवट्ठि० नह० एग०, उक्क० पुत्र कोडी सादि० | अवत्त ० जह० पलिदो ० सादि० । उक० तेत्तीस सा० सादि ० | देवगदि ०४ - आहारदुर्गं तिण्णिवड्डिहाणि अवट्ठि ० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीस साग० सादि० । [तेजइगादिवि०तिष्णिव- हाणि - अवद्वि० - अवत्त० णाणावरणभंगो।] तित्थय० ओघं । एवं अधिदं०सम्मादि ० - खड्ग ० | गवरि खड्ग ० ' मणुसायु० दोपदा० जह० अंतो०, उक्क० छम्मासं० देसू० | देवायु० दोपदा जह० अंतो०, उक्क ० पुव्वकोडितिभागं देसू० । मणुसगदिपंचसतिण्णवड्डि-हाणी० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० बेसम० | अवत्त ० णत्थि अंतरं । सेसाणं जम्हि छावट्टि • तम्हि तेत्तीस सा० कादव्वं । ९०३. मणपञ्ज० पंचणा ० चदुदंसणा ० चदुसंज० - पुरिस०[० - उच्चा० - पंचंत० तिण्णिवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक छियासठ सागर है । सातावेदनीय और यशः कीर्तिकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असाता आदि दस प्रकृतियोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । आठ कषायों की तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग मनुष्यों के समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। दो आयुओंके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । मनुष्यगति पञ्चककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । देवगति चतुष्क और आहारक द्विककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर इन सबका साधिक तेतीस सागर है । तैजसशरीर आदि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों की तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य बन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार अवधि दर्शनी, सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें मनुष्यायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है । देवायुके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभाग प्रमाण है । मनुष्यगति पञ्चककी तीन वृद्धि और तीन हानियों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है । शेष प्रकृतियोंका जहाँ छियासठ सागर अन्तर काल कहा है, वहाँ तेतीस सागर कहना चाहिये । ६०३. मन:पर्ययज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्ञलन, पुरुषवेद, १ मूलप्रतौ मणुसाणु० दो - इति पाठः । २ मूलप्रतौ कादव्वं मणुसपजते पंच-इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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