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________________ जहण्णपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा १६६ ३६०. देवगदि० जट्टि०व० खवगफगदीओ [णि बं० ] असंखेजगु० । पंचदंस-मिच्छ०-बारसक०-चदुणोक० णिय० संखेंजगु० । णाम सत्थाणभंगो । ३६१. एइंदि०-ज हि०० खव०पगदीश्रो णि. बं. असंखेजगु० । पंचदंस०मिच्छ०--बारसक०-गवुस-भय-दुगु---णीचा णि वं. असंखेंजभा० । सादा० सिया० असंखेज गु० । असादा०--हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया० असंखेंजभा० । णाम सत्थाणभंगो । एवं आदाव-थावर० । एवं बीइंदि-तीइं०-चदुरिं० । ३६२. आहार० ज०हि०० खवगपगदीणं णि. बं. असंखेज्जगु० । हस्सरदि-भय--दुगु णि० बं० संखेज्जगु० । णाम. सत्थाणभंगो । एवं आहार०अंगो० तित्थय० । ३६३. णग्गोद० ज०हि बं० खवगपगदीओ णि• बं. असंखेंजगु०। पंचदंस०-मिच्छ०-बारसक०-भय -दुगुणि० बं. असंखेजभा० । सादा० सिया० ३६०. देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव क्षपक प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय और चार नोकषाय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भंग स्वस्थानके समान है। ३६१. एकेन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव क्षपक प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, नपुंसकवेद, भय, जुगुप्सा और नीच गोत्र इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। सातावेदनीयका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है। इसी प्रकार आतप और स्थावर प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रिय जाति और चतुरिन्द्रिय जातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ___३६२. आहारक शरीरको जघन्य स्थितिका बन्धक जीव क्षपक प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भंग स्वस्थानके समान है। इसी प्रकार आहारक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थंकर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३६३. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव क्षपक प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्सा Jain Education Internatsal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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