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________________ १७० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे असंखेज्जगु० । हरस-रदि-- अरदि-सोग - णीचा० सिया असंखेज्जभा० । गाम० सत्थाणभंगो। एवं चदुदंस० पंचसंघ० - अप्पसत्थ० - दूर्भाग- दुस्सर - अणादें० राग्गोदभंगो। वरि खुज्ज० - वामण ० - श्रद्धणारा० खीलिय० - इत्थिवे० सिया० असंखेज्जभा० । पुरिस० सिया संखेज्जगु० । 9 ३६४. हुंड० - असंपत्त० ज० द्वि० बं० इत्थि० एस० सिया० असंखेज्जगु० । एवं पत्थ० - दूभग दुस्सर- अणादें ० -- तिरिणवेदाणि भाणिदव्वाणि । मुहुम- साधार० एइंदियभंगो । वरि सगपगदीओ जाणिदव्वा । एवं सव्वेसिं गामाणं । raft out सत्थारणं कादव्वं । ३६५. देसेण रइएस आभिणिबोधि० ज० द्वि० बं० चदुणा० - रणवदंसणा ०सादा०-- मिच्छ० - सोलसक० - पुरिस ० - हस्स--रदि--भय-दुगु० - मणुसग०--पंचिंदि०ओरालि०-समचदु०-ओरालि० अंगो० - वज्जरि ० - वरुण ० ४ - मणुसाणु ० - अगु० ४ इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीयका कंदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । हास्य, रति, श्ररति, शोक और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे श्रजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । नामकर्मकी प्रकृतियों का भङ्ग स्वस्थानके समान है । इसी प्रकार न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान के समान चार दर्शनावरण पाँच संहनन, प्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय की मुख्यतासे सन्निकर्ष जामना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुब्जकसंस्थान, वामन संस्थान, अर्धनाराच संहनन, कीलक संहनन और स्त्रीवेद इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् बन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । ३६४. हुण्डसंस्थान और श्रसम्प्राप्तास्पाटिका संहननकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इस प्रकार अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुस्वर, श्रनादेय और तीन वेदोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। सूक्ष्म और साधारण प्रकृतियोंका भङ्ग एकेन्द्रिय जातिके समान है । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रकृतियाँ जाननी चाहिए । इसी प्रकार सब नामकर्मकी प्रकृतियोंको जानना चाहिए । इतनो विशेषता है कि अपना अपना स्यान कहना चाहिए । ३६५. आदेश से नारकियोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, श्रगुरुलघुचतुष्क, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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