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________________ १८५ जहण्णपरत्थाणबंधसणिणयासपरूवणा तस०४-सुभग-सुस्सर--प्राद-णिमि० --पंचंत. णि वं० संखेजगु० । सादासाद०चदुणोक०--दोगदि--समचदु---वज्जरि०--दोबाणु०-उज्जो -थिराथिर--सुभासुभ-जस०अजस०-दोगोदं सिया० संखेज० । दोसंठा--दोसंघ० सिया० संखेज्जभा० । एवं णवुस । णवरि पंचसंठा-पंचसंघ०-दोआयु० देवोघं ।। ३६८. रणग्गोद० ज०हि०० पंचणा--णवदंसणा--मिच्छ०--सोलसक०-- पुरिस०--भय-दु०--पंचिंदि०---ओरालि०-तेजा--क०--ओरालि०अंगो०-वरण ४-- अगु०४--पसत्थ०--तस०४--सुभग--सुस्सर--प्रादें--णिमि---पंचंत. पि. बं० संखेंज्जगु० । सादासाद०-चदुणोक०-दोगदि-वज्जरि०-दोघाणु०-उज्जो -थिराथिर-सुभासुभ-जस-अजस०-णीचुच्चा० सिया० संखेज्जगु० । वज्जणारा [सिया०] । तं तु । एवं वज्जणारा० । चदुसंठा०-चदुसंघ०--अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादें रणग्गोद त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, चार नोकषाय, दोगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, दो आनुपूर्वो, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति, अयश कीर्ति और दो गोत्र इनका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे संख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। दो संस्थान और दो संहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पाँच संस्थान, पाँच संहनन और दो प्रायका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। ३९८. न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय आति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, गुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, बस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका वन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, चार नोकषाय, दो गति, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति, अयश-कीति, नीचगोत्र और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। वजनाराचसंहननका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका मो बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वज्रनाराचसंहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानके समान है। इतनी विशेषता है कि कुब्जक संस्थान, वामन संस्थान, अर्द्धनाराच संहनन और कीलक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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