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________________ १८६ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे भंगो। वरि खुज्जसंठा० - वामणसंठा० अद्धणारा खीलिय० इत्थि० सिया० संखेज्जभाग० । पुरिस० सिया० संखेज्जगु० । हुड ० - असंपत्त० - अप्पसत्थ ०- - दुभंग- दुस्सरअणादे पुरिस० सिया० संखेज्जगु० । इत्थिवे ० स ० सिया० संखेज्जभा० । e ३६६. एइंदि० ज० द्वि०बं० पंचरणा०-गवदंसणा०--मिच्छ०- सोलसक०--भयदु०--तिरिक्खग०--ओरालि० - तेजा ० -- क ० - वरण ०४ - तिरिक्खाणु० -- अगु० ४-- बादर-पज्जत्त - पत्ते ० - णिमि० णीचा०- पंचंत० शि० बं० संखेज्जगु० । सादासादा० चदुलोक ०-उज्जो ०-थिराथिर - सुभासुभ-अस० सिया० संखेज्जगु० । एवं स ० - हुडसं ०दुर्भाग - णादे० ० वं० संखेज्जभाग० । आदाव० सिया । तं तु० । थावरं रिण० बं० । तं तु० । एवं आदाव थावर० । एवं वेउव्वियमिस्स० । वरि मिच्छत्त संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव स्त्रीवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवीं भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् बन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भाग, दुस्वर और श्रनादेय इनकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका वन्धक होता है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् ग्रवन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । ३९९. एकेन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलहकषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण, नीच गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । नपुंसक वेद, हुण्डसंस्थान, दुर्भग और अनादेय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । श्रातपका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका संख्यातव भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । स्थावरका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा जघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार आतप और स्थावरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए | For Private & Personal Use Only Jain Education International 1 www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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