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________________ १०७ उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा २१६. णिरयग० उ०हि०० पंचणा-णवदंसणा० असादा-मिच्छ०-सोलसक०-णस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-पंचिंदि०-तेजा-क०-हुड०-वएण० ४-अगु०४पसत्थ-तस० ४-अथिरादिछ०-णिमि०-णीचा०-पंचंत० णिय बं० संखेज्जगुणही। णिरयायु० सिया । यदि० णियमा उक्कस्सा। आबाधा पुण भयणिज्जा । वेउव्वि०वेउवि अंगो०-णिरयाणु० णि० बं० । तं तु० । एवं वेउव्वि-वेउवि अंगो०णिरयाणु० । ___ २१७. देवगदि० उ०ट्टि बं० पंचणा-णवदसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भयदुगु-पंचिंदि०-तेजा-का-समचदु०-वएण०४--अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-सुभगसुस्सर-आदें -णिमि०-उच्चा-पंचंत णि बंणि अणु संखेज्जगुणही । सादासाद०--हस्स--रदि-अरदि-सोग--इत्थि-पुरिस-थिराथिर-सुभासुभ--जस-अजस० सिया संखेज्जगुणही । वेउवि०-वेवि० अंगो णि० ब० णि संखेज्जगुणही। देवाणु० णि• बं । तं तु० । एवं देवाणु । २१६. नरकगतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच छानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पश्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। नरकायुका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है। परन्तु आबाधा भजनीय है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिकाभी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । २२७. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । देवगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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