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________________ १०६ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे २१४. णील-काऊणं आभिणिबो उहिबं० चदुणा०--णवदंसणाअसादा-मिच्छ०-सोलसक०-णस०-अरदि-सोग-भय-दुगुं०--तिरिक्खगदि-पंचिंदि०ओरालि०-तेजा-का-हुंडसं०--ओरालि अंगो०-संपत्त०--वएण०४-तिरिक्रवाणु०अगु०४-अप्पसत्थ -तस०४-अथिरादिछ-णिमि०--णीचा०-पंचंत० णि बं० । तंतुः । एवमेदाओ ऍकमेकस्स । तं तु० । सादा०-इत्थि०-पुरिस०-हस्स-रदि-मणुसग०पंचसंठा०-पंचसंघ-मणुसाणु०-पसत्थ -थिरादिछ०-उच्चा० तित्थयरं च णिरयभंगो। २१५. णिरयायु० उ०हि०बं० पंचणा०-णवदंसणा-असादा-मिच्छ०-सोलसक०-णवूस०-अरदि-सोग-भय-दुगुं०-पंचिंदि०--तेजा--क-हुड०-वएण०४-अगु०४अप्पसत्थ---तस०४-अथिरादिछ०-णिमि०-णीचा०--पंचंत० णि. बं. संखेज्जगुणही० । णिरयग-वेउव्वि०-वेउवि अंगो०-णिरयाणु णिय. बं०। तंतु० उक्क० अणु० विट्ठाणपदिदं बंधदि, असंखेंजभागहीणं वा संखेज्जदिभागहीणं वा बंधदि । तिरिण-आयुगाणं अोघं । २१४. नील और कापोत लेश्यावाले जीवों में प्राभिनियोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तास्पाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका एक दूसरेको अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए और तब यह जीव उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। सातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, मनुष्यगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहा. योगति, स्थिर आदि छह, उच्चगोत्र और तीर्थङ्कर इनका भङ्ग नारकियोंके समान है। २१५. नरकायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौदर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। नरकगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,दी स्थान पतित स्थितिका बन्धक होता है। या तो असंख्यात भागहीन स्थितिका बन्धक होता है या संख्यात भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। तीन आयुओंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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