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________________ उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा १०५ आहार-आहार०अंगो० ओघं । ___ २११. मणपज्जव०--संजद०-सामाइ०-छेदो०-परिहार० आहारकायजोगिभंगो। णवरि सादावे० उ.हि बं० अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस-तित्थय. सिया० संखेजदिगुणहीणं । धुविगाो णि• बं० संखेजगुणहीणं । एवं सादभंगो हस्स-रदि-थिर-सुभ-जसगित्ति-देवायु० । णवरि देवायु० असादावे०-अथिर-असुभअजस० वज्ज । सेसाणं णाणावरणादीणं तित्थयरं गाइस्सदि त्ति णादव्वं । २१२. सुहुमसंपराइ० आभिणिबो० उ.हि०बं० चदुणाचदुदंसणा-सादा०जस०-उच्चा०-पंचंत० णि बं० णि उक्कस्सा । एवमेदाओ ऍक्कमेक्केण उक्कस्सा। ___२१३. संजदासंजदा० परिहार० भंगो। असंजद०-चक्खुदं०-अचक्खुदं० ओघं । ओघिदं. ओधिणाणिभंगो । किरणले. णवंसगभंगो । णवरि देवायु० उ०हि०० पंचणा-णवदंसणा०-सादा-मिच्छ०-सोलसक०-पुरिस०-हस्स-रदि-भय-दुगुं०-देवगदि-पसत्थट्ठावीस-उच्चा-पंचंत० णि• बं० संखेज्जगुणहीणं । समान है। आहारकशरीर और आहारक श्राङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अोधके समान है। २११. मनःपर्ययज्ञानवाले, संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापना संयत और परिहारविशुद्धि संयत जीपों में अपनी-अपनी प्रकृतियोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष आहारक काययोगी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयशाकीर्ति और तीर्थङ्कर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहोन स्थितिका बन्धक होता है। ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार साता प्रकृतिके समान हास्य, रति, स्थिर, शुभ, यश-कीर्ति और देवायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि देवायुको मुख्यतासे सन्निकर्ष कहते समय असाता वेदनीय, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इनको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। शेष ज्ञानावरणादिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव तीर्थङ्कर प्रकृतिको नहीं बाँधेगा,ऐसा जानना चाहिए। २१२. सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयत जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, साता वेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार ये प्रकृतियों एक दूसरंकी अपेक्षा परस्पर उत्कृष्ट स्थितिबन्धको लिये हुए सन्निकर्पको प्राप्त होती हैं। २१३. संयतासंयतोंका भङ्ग परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके समान है। असंयत, चक्षुदर्शनवाजे और अवक्षुदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। अवधिदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग अवधिज्ञानियोंके समान है। कृष्णलेश्यावाले जीवोंका भङ्ग नपुंसक वेदवाले जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि देवायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियों, उच्च गोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमले अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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