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________________ महाबंधे हिदिबंधाहियार पसत्थ०-थिरादिछ०-उच्चा० सिया० बं० । तं तु० । एवं सादभंगो पुरिस-हस्स-रदिसमचदु०-वजरिस-पसत्थ-थिरादिछ ०-उच्चा० । तिण्णिायुगाणं अोघं । २२६. मणुसग० उ०हिबं० पंचणा-णवदंसणा-असादा-मिच्छ०- सोलसक०-इत्थिवे -अरदि-सोग-भय-दुगु०--णाम सत्थाणभंगो णीचा०-पंचंत० णि. बं. संखेजदिभाग० । इत्थि.णि ५० संखेजदिभागू। मणुसाणु० णि• बं । तं तु०। एवं मणुसाणु। ___ २२७. देवगदि० उ हि०० पंचणा--णवदंसणा०--सोलसक०--भय-दुगु०उच्चा-पंचंत-णि बं० संखेज्जदिभागणं० । सादा०-पुरिस०-हस्स-रदि सिया० । तं तु० । असादा०-इथिवे०-अरदि-सोग० सिया संखेज्जदिभाग० । णामाणं सत्थाण नाराच संहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भो बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका वन्धक होता है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार सातावेदनीय प्रकृतिके समान पुरुषवेद, हास्य, रति, समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्च गोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तीन अायों की मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है। २२६. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, स्त्रीवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्वस्थान भङ्गके समान नाम कर्मको प्रकृतियाँ, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। स्त्रीवेदका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि • अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका वन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २२७. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुकृष्ठ संख्यातवाँ भाग होन स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, पुरुषवेद, हास्य और रति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भो बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, अरति और शोक इनका कदाचित् यन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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