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________________ उक्कस्सपरत्थाणबंध सण्णियासपरूवणा १११ २२४. सासणे' आभिणिवोधि० उक्क० द्वि० बं० चदुष्णा ० रावदंसणा ० - असादा०सोलसक०--इत्थि०--अरदि-सोग-भय- दुगु० - तिरिक्खगदि-पंचिंदि० -ओरालि०-तेजा०क० - वामणसंठा०-ओरालि० अंगो०- खीलियसंघ०--वरण० ४- तिरिक्खाणु०--अगु०४अप्पसत्थ०-तस०४- अथिरादिछ० - णिमि० णीचा० - पंचंत० णि० बं० । तं तु० । उज्जो ० सिया । तं तु० । एवमेदाओ ऍकमेक्स्स । तं तु० | 1 २२५. सादा० उ० हि०चं० पंचरणा०- एणवदंसणा ० - सोलसक० - भय--दुगु ० पंचिदि० - तेजा ० क ० -वरण ०४ गु०४-तस०४ - णिमि० - पंचंत० णि० बं० संखेज्जदिभागूणं बं० । इत्थि०-अरदि-सोग-तिरिक्खगदि-मणुसगदि रालि० चदुसंठा० - ओरालि० गो० - चदुसंघ० - दोआणु ० उज्जो ० - अप्पसत्थ० अथिरादिछ०-- णीचा ० सिया० संखेज्जदिभागू० । पुरिस० - देवर्गादि- वेउव्वि० - समचदु० - वेडव्वि ० अंगो० वज्जरि०- देवाणु० २२४. सासादन सम्यक्त्व में आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, सोलह कषाय, स्त्रीवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वामन संस्थान, श्रीदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, कीलक संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, गुरुलघु चतुष्कं श्रप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि श्रनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवीं भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए और तब यह उत्कृष्ट स्थितिका भो बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । २२५. सातावेदनीयको उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । स्त्रीवेद, अरति, शोक, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, चार संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, चार संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह ओर नोच गोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेद, देवगति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ १ मूलप्रतौ सासणे उक्क० हि० बं० आभिणिबोधि० चदुणा० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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