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________________ ११० महाबंधे विदिबंधाहियारे २२२. सुकाए आणदभंगो । णवरि देवायु० ओघ । देवगदि० उ०हि०० पंचणा-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुमुं०-पंचिंदिय०-तेजा.-क०-समचदु०वरण०४-अगु०४-पसत्थ -तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे०-णिमि०-उच्चा०-पंचंत णिय० बं० संखेज्जदिभागू० । सादासाद०-इथि०-पुरिस०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिरादितिरिणयुगलं सिया० संखेज्जदिभाग० । वेउब्बि०-वउवि० अंगो०-देवाणु० णियमा बंधगो । तं तु० । एवं वेउन्वि०-वेउवि अंगो०-देवाणु । आहारदुगं ओघं । _____२२३. भवसिद्धिया० अब्भवसिद्धिया० ओघं । सम्मादिहि-वइगसम्मादि० वेदगस०-उवसमसम्मा० ओधिभंगो। एवरि उवसमे तित्थयरस्स संजदभंगो । सेसाणं सम्मादिहीणं तित्थय० उ०हि०० देवगदि-वेउव्वि०-वेउवि०अंगो०-देवाणु० णि बं०। तंतु०।णवरि खइगे मणुसगदि-देवगदिसंजुत्ताओ सत्थाणे कादम्बाश्रो । २२२. शुक्ल लेश्यामें आनत कल्पके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि देवायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष श्रोधके समान है। तथा देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे यन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवा भागहीन स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक और स्थिर आदि तीन युगल इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवों भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा आहारक द्विककी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है। २२३. भव्य और अभव्य जीवों में अपनी-अपनी प्रकृतियोंका सन्निकर्ष ओघके समान है। सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि जीवों में अपनी-अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि उपशम सम्यक्त्वमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग संयत जीवोंके समान है। शेष सम्यग्दृष्टि जीवों में तीर्यङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव देवगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इतनो विशेषता है कि क्षायिक सम्यक्त्वमें मनुष्यगति और देवगति संयुक्त प्रकृतियोंको स्वस्थानमें कहना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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