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________________ afgबंधे अंतर ४२५ उक्क० अंतो० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० तिण्णिसमयं । सेसाणं णिरयसादभंगो । एवं सव्वजत्ताणं । ८८७, मणुस ०३ पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि संखेज्जगुणवड्डि-हाणि० उक्क० अंतो॰ । खवियाणं असंखेंज्जगुणवड्डि- हाणि अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वको डिपुधत्तं । मणुसअप ० धुवियाणं तिरिक्खअपज्जत्तभंगो। णवरि अवट्ठि० जह० एग०, उक० बेसम० । सेसाणं सादभंगो । ८८८. देवसु धुविगाणं णिरयभंगो । थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - अणंताणुबंधि०४इत्थि० स० पंचमंठा० पंचसंघ०० अप्पसत्थ० दूभग दुस्सर- अणार्दे० णीचा० तिष्णिवड्डिहाणि अवट्ठि ० जह० एग०, अवत्त ० जह० अंतो०, उक्क० ऍकत्ती साग० देख० । सादादिवारस० गिरयभंगो । पुरिस० समचदु० वज्जरि० - पसत्य० सुभग-सुस्सर- आर्देज्ज १०-उच्चा० तिण्णवड्डि हाणि अवडि० सादभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० ऍक्कत्तीस सा० देसू० | दोआयु० णिरयभंगो । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणुपु० उज्जीवं तिण्णिवड्डि-दाणिअवट्ठि ० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० अट्ठारस सागरोवमाणि सादि० । मणुसग दि- मणुसाणु तिण्णिवड्डि- हाणि अवट्टि० सादभंगो | अवत्त० तिरिक्खग दिभंगो । एइंदिय-आदाव थावर० तिष्णिवड्डि-हाणि अवट्टि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियों में सातावेदनीयके समान है । इसी प्रकार सब अपर्याप्त जीवों के जानना चाहिये । मनुष्यत्रिक पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चों के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि संख्यात गुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । क्षपक प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरपूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है । मनुष्य अपर्याप्तकों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यखअपर्याप्तोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । देवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भाग, दुस्वर, अनादेव और नीचगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। साता आदि बारह प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है । पुरुषवेद, समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रऋषभनाराच संहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्यवन्धका जधन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। दो आयुओं का भङ्ग नारकियों के समान है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्जगत्यानुपूर्वी और उद्योतकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इन सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। मनुष्यगति, और मनुष्यत्यानुपूर्वीकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । श्रव'क्तव्यबन्धका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है। एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरकी तीन वृद्धि, तीन For Private & Personal Use Only ૧૪ Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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