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________________ more---- • महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे खेत्तमंगो । सेसपदा तेरहचोद्द० । __६३७. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तगेसु धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० लोग० असंखे सव्वलो० । सादादिदस० सव्वपदा लोग० असंखे सव्वलो० । णवंस.. तिरिक्खग०-एइंदि० हुंडसं०-तिरिक्खाणु०-परघादुस्सा०-थावर-सुहम-पज्जत्त-अपज्जत्तपत्तेय०-साधार०-भग-अणादें-णीचा० अवत्त० खेत्त । सेसपदा लोग. असंखें सबलो० । उज्जो०-जसगि० सव्वपदा सत्तचोद्द० । बादर० अवत्त० खेत० । सेसपदा सत्तचोद्द० । अज० अवत्त० सत्तचों । सेसं णवुसगभंगो । सेसाणं सव्वपदा खेत्तः । एवं मणुसअपज्ज०-सव्वविगलिंदि०-पंचिंदिय-तसअपज्जा-बादरपुढवि०-आउ० तेउ०वाउकाइयपज्जत्त-चादरवणफदिपत्तयपज्जत त्ति । ६३८. मणुस०३ धुवियाणं असंखेज्जगुणवड्डि-हाणि-अवत्त० खेत्तः । सेसाणं च पंचिंदियतिरिक्खभंगो । तसपगदीणं खेत्त० । ६३६. देवेसु धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० सादादिवारस-मिच्छ०-उज्जोव० सवपदा अट्ठ-णवचोद्दसभागा वा देसूणा । इत्थिवे०-पुरिसवे०तिरिक्खायु०-मणुसायु०. किया है। बादर प्रकृतिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम तेरहबटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। १३७. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सबलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । साता आदि दस प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत, और यशःकीर्तिके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । बादर प्रकृतिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अयशःकीर्तिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम सातबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अनिकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक, प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। ६३८. मनुष्यत्रिकमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। शेष पदोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान है। त्रस प्रकृतियोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। ६३६. देवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने तथा साता आदि बारह, मिथ्यात्व और उद्योतके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ वटे चौदह राजू और कुछ कम नौबटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वीवेद, पुरुषवेद, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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