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________________ उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूयणा क्वाणु०-अगु०४-वादर-पज्जत्त-पत्ते०-अथिरादिपंच-णिमि० --णीचा०--पंचंत० णि० वं० संखेजदिभाग० । वामणसंठा०-खीलिय०-असंपत्त० सिया० । तं तु० ! हुंडउज्जोव० सिया० संखेज्जदिभागू० । ओरालि अंगो०-अप्पसत्थ०-तस-दुस्सर० णियमा० । तं तु० । एवं पंचिदियभंगो वामणसंठा०-ओरालिअंगो०-खीलिय.. असंपत्त-अप्पसत्थ०-तस-दुस्सर त्ति । एवं चेव तिएिणसंठा-तिएिणसंघ० । णवरि अहारसीगारो सिया० संखेज्जदिभागू० । सोधम्मी० तित्थय० देवोघं ।। १८२. सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति णिरयभंगो । आणद याव गवगेवज्जा त्ति आभिणिबोधि० उक्क हिदि०० चदुणा०-णवदंसणा-असादा०-मिच्छ०सोलसक०-अरदि-सोग-भय-दुगु-मणुसग०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०--हुड०-- ओरालि०अंगो०-असंपत्त०-वएण०४-मणुसाणु०-अगु०४-अप्पसत्य--तस०४--अथि-- चतुष्क, यादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और अन्तराय पाँच इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट, संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। वामन संस्थान, कीलक संहनन और असम्प्रोप्तासपाटिका संहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिको भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षाअनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । हुण्ड संस्थान और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका वन्धक होता है। औदारिक अाङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःस्वर इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय जातिके समान वामन संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, कीलक संहनन, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःस्वर इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए तथा इसीप्रकार तीन संस्थान और तीन संहननकी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनो विशेषता है कि जिन प्रकृतियोंका अठारह कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है उनका यहाँ कदाचित् बन्ध होता है और कदाचित् बन्ध नहीं होता। यदि बन्ध होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होता है । सौधर्म और ऐशान कल्पमें तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है। १८२. सानत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है । प्रानत कल्पसे लेकर नौ ग्रेवेयक तकके देवों में प्राभिनिवोधक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार झानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय, जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्ण चतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति प्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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