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________________ उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा भय-दुगु -पंचिंदि०-ओरालि].-तेजा०-क०-ओरालि अंगो०-वएण०४-अगु०४-तस० ४-णिमि०-पंचंत. पि. बं. दुभाग० । सादा-पुरिस -हस्स-रदि-समचदु०-पसत्थ०थिरादिछ०-उच्चा• सिया । तं तु० । असादा-दुस-अरदि-सोग-तिरिक्वग०हुंडसं०-तिरिक्वाणु०-उज्जो०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ०-णीचागो सिया दुभागूछ । इत्थि०-मणुसग०-मणुसाणु सिया०तिभागू०। चदुसंठा० सिया संखेनदिभागू०बंधदि। १३७. सुहुम० उक्क डिदिबं० पंचणा-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छे-सोलसक०-गवुसग०-अरदि-सोग-भय-दुगु-तिरिक्खगदि-एइंदिय०--ओरालि०-तेजा०-- क-ओरालि-हुडसं०-वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०४-उप-थावर-अथिरादिपंचणिमि०-णीचा-पंचंत णि• बं० संखेज्जदिभागू० । पर०-उस्सा०-पज्जत्त-पत्तेग सिया० संखेज्जदिभागू० । अपज्जत्त-साधारण• सिया० । तं तु० । एवं साधारण । वरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट,दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। असाता वेदनीय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, तिर्यश्चगति, हुण्ड संस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होताहै। स्त्रीवेद, मनुष्य गति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट तीन भागन्यून स्थितिका बन्धक होता है। चार संस्थानका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबाधक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। १३७. सूक्ष्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, उपघात, स्थावर, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। परघात, उच्छास, पर्याप्त और प्रत्येक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचिद, प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है.तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। अपर्याप्त और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार साधारण प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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