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________________ महाबंधे टिदिबंधाहियारे १३८. अपज्जत्त० उक्क द्विदिबं० पंचणा-णवदंसणा-असादा-मिच्छत्तसोलसक०-णवुस-अरदि-सोग--भय-दुगु-तिरिक्खग-ओरालि०-तेजा०-क--- हुडसं०-वएण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०--अथिरादिपंच-णिमि०--णीचा०--पंचंत० णिय० बं० संखेज्जदिभागू० । एइंदि०-पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०-असंपत्त-तसथावर-बादर-पत्तेय० सिया० संखेज्जदिभागू। तिएिणजादि-सुहुम-साधारणं सिया० । तं तु.। १३६. थिर० उक्क हिदिवं पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक-भयदुगु-तेजा-क०-वएण०४-अगु०४-पज्जत्त-णिमि०-पंचंत० णि. बं. दुभागू० । सादा०-पुरिस०-हस्स-रदि-देवगदि-समचदु०-वज्जरिस०-देवाणु०-पसत्थ०-सुभादिपंच०-उच्चा० : सिया० । तं तु० । असाद०-णवुस-अरदि-सोग-तिरिक्खगदि-एइंदि०पंचिंदि०-ओरालिय-वेउव्विय०--हुडसं०-दोअंगो-असंपत्त -तिरिक्वाणु-प्रादा __ १३८. अपर्याप्त प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्च गति, औदारिकशरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरोर, हुण्ड संस्थान,वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीच गोत्र और पांच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थिति का बन्धक होता है । एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासपाटिका संहनन, त्रस, स्थावर, बादर और प्रत्येक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। तीन जाति, सूक्ष्म और साधारण इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है, यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। १३६. स्थिर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतु एक, अगुरुलघु चतुष्क, पर्याप्त, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, देवगति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, शुभ आदि पाँच और उच्चगोत्र इनका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक्त होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुस्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। असाता वेदनीय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, हुण्ड संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, पातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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