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________________ परत्थाणहिदियाबहुगपरूवणा णवरि खड्गे पंचणोक०--दोगदि--चदुसरीर-अजसगित्ति--उच्चा० उ हि. विसे । यहि. विसे० । ६५२. मणपज्जव० सव्वत्थोवा देवायु० उ०ट्टि । यहि विसे० । आहार उ०वि० संखेज्जः । यट्रिविसे० । हस्स-रदि-जसगि उ.हि संखेंज्जा। यटि. विसे । सादा उहि विसे । यहि विसे । पंचणोक०-देवगदि-तिविणसरीरअजस०-उच्चा० उक्क हि. विसे । यहि विसे । अथवा एदाओ संखेंजगुणायो । उवरिं श्रोधिभंगो । एवं संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-संजदासंजदा० । ६५३. णील-काऊए सव्वत्थोवा तिरिक्ख-मणुसायु० उ०हि । यहि विसे । देवायु० उ हि० संखेज्ज० । यहि विसे । णिरयायु० उ.हि. संखेज्ज०। यहि विसे० । देवगदि० उ.हि. संखेंज्ज । यहि. विसे । णिरयग०-वेरवि० उ०ट्टि. विसे० । यहि विसे । पुरिस०-हस्स-रदि--जसगि०--उच्चा० उ०हि० संखेज्ज । यट्टि विसे । सादावे०--इत्थि--मणुसग० उ.हि. विसे । यहि विसे । पंचपोक०-तिरिक्खग०-तिरिणसरीर-अजस०-णीचा० उ०हि. विसे । यट्टि० विसे । उवरिं अोघं । पता है कि नायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच नोकपाय, दो गति, चार शरीर, अयशाकीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। ६५२. मनःपर्ययज्ञानी जीवों में देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे आहारक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य, रति और यश कीर्तिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकपाय, देवगति, तीन शरीर, अयशाकीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है अथवा इनका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे आगेका अल्पबहुत्व अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इसी प्रकार संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिए । ६५३. नीललेश्या और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितियन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे देवगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगति और वैक्रियिक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद, हास्य, रति, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध संख्यानगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे सातावेदनीय, स्त्रीवेद और मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकषाय, तिर्यञ्चगति, तीन शरीर, अयश-कीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे आगेका अल्पबहुत्व प्रोघके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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