SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे सादि० । अवत्त० किण्णाए जह० सत्तारस० सादि०, उक्क० वावीसं० सादि । णीलाए जह० सत्तसाग० [सादि०, उक्क.] सत्तारस. सादिरे । काऊए जह. दसवस्ससहस्साणि सादि०, उक्क० सत्त साग० सादिः । तित्थय० धुवभंगो। णवरि अवढि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । काऊए तित्थय० णिरयभंगो । णील-काऊए मणुस.. मणुसाणु०-उच्चा० पुरिसवेदभंगो।। ७५७. तेउले० धुविगाणं दो पदा जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह. एग०, उक्क० बेसम० । थोणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-इत्थि०-णस०-तिरिक्खग०-एइंदि०-पंचसंठा०-पंचसंघ० तिरिक्खाणु०-आदाउज्जो०-अप्पसत्थवि०-थावरदूभग-दुस्सर-अणादें० णीचा० तिण्णिप० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० बेसाग० सादि० । पुरिस०-मणुसग०-पंचिंदि० समचदु०-ओरालि० अंगो०-वज्जरिस.. मणुसाणु०-पसत्थवि०-तस-सुभग-सुस्सर-आर्दै०-उच्चा० सोधम्मभंगो। अट्ठक० [ओरालि०-] आहारदुग-तित्थय० दोपदा जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अवत्त० णत्थि अंतरं । देवायुग० दोपदा णत्थि अंतरं णिरंतरं । दोआयु० देवभंगो । देवगदिचदुक० तिण्णिपदा० जह० एग०, उक० बेसाग० सादि० । अवत्त० सात सागर है । अवक्तव्य पदका कृष्णलेश्याम जघन्य अन्तर साधिक सत्रह सागर है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस सागर है। नीललेश्यामें जघन्य अन्तर सांधिक सात सागर है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सत्रह सागर है। कापोतलेश्यामें जघन्य अन्तर साधिक दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात सागर है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। कपोतलेश्या तीर्थङ्कर प्रकृतिका नारकियोंके समान भङ्ग है। नील और कपोतलेश्यामें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूवी और उच्चगोत्रका भङ्ग पुरुषवदके समान है। ७५७. पीतलेश्यावाले जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूते है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक . समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सबका साधिक दो सागर है । पुरुषवेद, मनुष्य ।ति, पश्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका भङ्ग सौधर्मकल्पके समान है । आठ कषाय, औदारिक शरीर, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है। देवा. युके दो पदोंका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। दो आयुओंका भङ्ग देवोंके समान है। देवगति चतुष्कके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है । इसीप्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंमें भी जानना चाहिए। इतनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy