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________________ १८२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे साणु० णि• बं० । तं तु० । सेसाणं तिरिक्खगदिभंगो। णवरि तित्थय०सिया० संखेज्जगु । एवं मणुसगदिपंचगस्स । __ ३६२. देवगदि० ज०शि०० पंचणा०--चदुदंस०--सादा --चदुसंज०--पुरिसजस०--उच्चा---पंचंत० णि. बं. असंखेज्जगु०। हस्स--रदि-भय-दु० णि० बं० संखेजगु० । पंचिंदियादिपसत्थसत्तावीसं णि० बं० । तं तु । तित्थय० सिया० । तं तु० । एवमेदाओ एक्कमकस्स । तं तु०।। ३६३. एइंदि० ज०ट्ठि०वं खविगाणं ओघं । पंचदं०-मिच्छ०--बारसकसा.. भय--दु०-णाम सत्थाणभंगो णीचा० णि बं० संखेज्जगु० । सादा०-जस० सिया० है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है। इतनी विशेषता है कि तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसोप्रकार मनुष्यगतिपञ्चककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३९२. देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यश-कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे वन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। पञ्चन्द्रिय जाति आदि प्रशस्त सत्ताईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी ! सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। ३९३. एकेन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, वारह कषाय, भय, जुगुप्सा, नाम कर्मकी स्वस्थान भगवाली प्रकृतियाँ और नीचगोत्रका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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