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________________ जहरणपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा १८१ मिच्छ०--बारसक---अरदि-सोग-भय-द०--पंचिंदि०-बेउवि०--तेजा-क-वेउच्चि०अंगो०-चरण ४-अगु०-तस०४-अथिर-असुभ-अजस--णिमि०-णीचा० णि. बं. संखेज्जगु० । वुस०--इंडसं०--अप्पसत्थ०--भग--दुस्सर--अणादें णि बं० संखेज्जभा० । णिरयाणु० णि० बं० । तं तु । एवं णिरयाणु० । ३६०. तिरिक्वगदि० ज०हि०० खवगाणं णिरयगदिभंगो। पंचदंसमिच्छ०-बारसक---हस्स--रदि-भय-दु०-पंचिंदि०-अोरालि०-तेजा--क-समचदु०ओरालि०अंगो०--वज्जरि०-वएण०४-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिपंच णि० बं० संखेज्जगु० । तिरिक्वाणु० --णीचा. पि. बं० । तं तु० । उज्जो० सिया० । तं तु०! एवं तिरिक्वाणु०-उज्जो०-णीचागो०। ३६१. मणुसग० जट्ठि०बं० ओरालि०--ओरालि०अंगो-वज्जरि०--मणुसमान है । पाँच दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, बारहकषाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नपुंसकवेद, हण्डसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, दर्भग, दस्वर और अनादेय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँभाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है,किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्याताभाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३९०. तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग नरकगतिके समान है। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारहकषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क और स्थिर आदि पाँच इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसीप्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३९१. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव औदारिक शरीर, औदारिक आंगोपांग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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