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________________ १८० महाबंधे द्विदिबंधाहियारे ३८७. इत्थिवे. जहि०० पंचणा---चदुदंस०--चदुसंज०-पंचंत० णि. बं. असंखेज्जगु० । पंचदंस-मिच्छ०-वारसक०--भय--दुगु- --पंचिंदि---तेजा०--क०-- वएण०४-अगु०४-पसत्थ-तस०४-सुभग-सुस्सर--प्रादे-णिमि० णि. बं. संखेज्जगु० । सादा-जस०-उच्चा० सिया० संखेज्जगु० । असादा०--चदुणोक०-तिरिणगदि-दोसरीर--समचदु०-दोअंगो०-वज्जरि०-तिरिणाणु०--उज्जो०--थिराथिर--सुभामुभ-अजसणीचा सिया० संखेज्जगु०। णग्गोद०-सादि-वज्जणारा०-णाराय सिया० संखेज्जभा०। एवं णवुस । वरि दोगदि-समचदु०-वज्जरिस०-दोआणु०उज्जो०-थिराथिर-सुभासुभ-अजणीचा० सिया० संखेज्जगु० । चदुसंठा०-चदुसंघ० सिया० संखेज्जभा० ।। ३८८. आयुगाणं चदुरणं पि खवगपगदीणं असंखेज्जगु० । सेसाणं मणुसभंगो। ३८६. णिरयगदि० जट्ठिबं० खवगपगदीणं ओघं । पंचदं० --असादा० ३८७. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। पांच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेद्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, प्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। असाता वेदनीय, चार नोकषाय, तीन गति, दो शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, तीन प्रानुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अयशःकीर्ति और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। न्यग्रोधसंस्थान, स्वातिसंस्थान, वज्रनाराच संहनन और नाराच संहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचि प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसीप्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि दोगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अयश-कीर्ति और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। चार संस्थान और चार संहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। ३८८. चार आयुओकी भी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव क्षपक प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगणी अधिक स्थितिका होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्यों के समान है। ३८९. नरकगतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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