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________________ जहण्णपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा १७९ दुगु--देवगदि--पंचिंदि०-वेउव्वि०-तेजा०-क०-समचदु०--वेरवि अंगो-वएण०४देवाणु०-अगु०४--पसत्थ --तस०४--सुभग--सुस्सर--प्रादें--णिमि० णि• बं० संखेंज्जगु० । हस्स-रदि-थिर-सुभ० सिया० संखेज्जगु० । जस० सिया० असंखज्जगुः । अरदि--अथिर--असुभ-अजस० सिया० । तं तु० । एवं अरदि-सोग--अथिर--असुभअजसः । ३८५. अप्पच्चक्रवाणकोध. जाहि०० खवगपगदीणं णिदाए भंगो । तिषिणक० णि० बं० । तं तु० । सेसाणं णिदाए भंगो । एवं तिषिणकसा० ।। ३८६. पच्चक्खाणकोध० ज०हि यं० खवगपगदीणं णिहाए भंगो। सेसानो हेहा उवरिं संखेज्जगु० । तिषिणक० णि० वं० । तं० तु । एवं तिएिणक । शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, स्थिर और शुभ इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका वन्धक होता है । यश कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका मो बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकोर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। __३८५. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिके बन्धक जोवके क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग निद्राके समान है। तीन कषायोंका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थिति का भो बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थिति का बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग निद्राके समान है। इसी प्रकार तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३८६. प्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग निद्राके समान है। शेष प्रकृतियोंका नीचे ऊपर नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुरणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तीन कपायोंका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थिति का भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तीन कपायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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