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________________ ४३४ महाबँधे द्विदिबंधाहियारे साग० सादि० । मणुसगदिपंचगस्स तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्टि ० जह० एम०, उक्क० तिष्णि पलिदो ० सादि० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेतीसं साग० सादि० । समचदु० - पत्थ० - सुभग सुस्सर-आदें० तिण्णिवड्डि- हाणि अवद्वि० सादभंगो । अवत्त० जह० तो ०, उक्क० बेछावट्ठि सा० सादि० तिण्णि पलिदो० देसू० । उच्चा० चत्तारि-हाण - अ० सादभंगो । अवत्त० समचदु०भंगो । एसिं० असंखेज्जगुणहाणि - बंधंतरं कायट्ठी • तेसिं तेतीसं सा० सादि० पुव्वकोडी सादिरे ० । ० ८६८. स० पंचणा० - चदुदंसणा ० - चदुसंजल० - पंचत० तिण्णवड्डि-हाणी० ओघं । असंखेज्जगुणवड्डि-हाणी० जह० उक० अंतो० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० चत्तारि सम० | थीण गिद्धि ३ - मिच्छ० - अनंताणुबंधि०४ असंखज्जभागबड्डि-हाणिअट्ठ० जह० एग०, उक्क० तेत्तीस सा० दे० । बेवड्डि-हाणि - अवत्त० ओघं । णिद्दापचला - भय - दुगुं ० - तेजइगादिणव० तिण्णिवड्डि-हाणि अवडि० णाणावरण भंगो० । अवत्त ० णत्थि अंतरं । सादावे ० - जसगि० तिष्णिवड्डि-हाणि - अवट्ठि० अत्त० ओघं । असंखेज्ज - गुण-हाणी. ० जह० उक्क० अंतो० । असादादिदस - अडकसा० - तिणिआयु० - वेउव्वियछ० - मणुसगदिदुग० - आहारदुग० ओघं । देवायु० तिरिक्खभंगो | इत्थि० - णवस ०पंचसंठा-पंच संघ० - उज्जो० - अप्पसत्थ- दूभग- दुस्सर - अणादें० असंखेज्जभागवड्डि पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । मनुष्यगति पञ्चककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधितेतीस सागर है। समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आयकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छियासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य हैं | उच्चगोत्रकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है | अवक्तव्यबन्धका भङ्ग समचतुरस्त्र संस्थान के समान है। जिनके असंख्यात गुणहानिबन्धका अन्तर कार्यस्थिति प्रमाण है, उनके वह पूर्वकोटि अधिक साधिक तेतीस सागर है । ६. नपुंसक वेदी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका भङ्ग श्रोघ के समान है । असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। दो वृद्धि, दो हानि और अवक्तव्यबन्धका भङ्ग ओधके समान है । निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा और तैजसशरीर आदि नौ प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । अवक्तव्य बन्धका अन्तरकाल नहीं है । सातावेदनीय और यशःकीर्तिकी तीन वृद्धि, तीन हानि अवस्थित और अवक्तव्युबन्धका अन्तरकाल के समान है । असंख्यात गुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असातावेदनीय आदि दस, आठ कषाय, तीन आयु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगतिद्विक और आहारकद्विकका भङ्ग शोधके समान है । देवायुका भङ्ग तिर्यञ्चों के समान है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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