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________________ वविबंधे अप्पाबहुगं ४८१ णत्थि। सेसाणं पि ओघं । माणे सत्तारणं पि अवत्त० णत्थि । सेसाणं पि ओघं । मायाए सोलसणं पि अवत्त० णत्थि । सेसाणं पि ओघं । लोभे पंचणा०-चदुदंस०पंचंत० अवत्त० णत्थि । सेसपदा ओघभंगो । ६७०. मदि०-सुद० धुविगाणं मिच्छत्त० तिरिक्खोघं । सेसाणं ओघं । विभंगे धुवियाणं णिरयभंगो। मिच्छत्त०-देवगदि-पंचिंदि० ओरालिय०-वेउव्विय०-समचदु०वेउब्विय अंगो०-देवाणुपु०-पर०-उस्सास-बादर-पज्जत्त-पत्तेय० सव्वत्थोवा अवत्त० । संखेज्जगणववि-हाणी दो वि० असंज्जग० । उवरिमपदा धुवभंगो। सादासाद०सत्तणोक०-तिण्णिगदि-चदुजादि-पंचसंठाण-ओरालि० अंगो०-छस्संघ०-तिण्णिआणु०आदा० उज्जो० दोविहाय० तस-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साधार०-थिरादिछयुगल-दोगोद० सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवड्डि-हाणी दो वि० । अवत्त० संखेज्जगु० । उवरिमपदा धुवभंगो। ६७१. आभि०-सुद०-ओधि० पंचणा०-चदुदंसणा०-चदुसंज०-पुरिस-उच्चा०-पंचंत० सव्वत्थो० अवत्त० । असंखेज्जगुणवड्डी संखेजगुः । असंखेजगुणहाणी संखेजगु० । संखेंजगणवाड्डि-हाणी दो वि० असंग० । संखेजभागवड्डि-हाणी दो वि० संखेजग० । अन्तरायका भङ्ग ओबके समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पद नहीं है। शेप प्रकृतियोंका भङ्ग भी अोधके समान है। मान कपायवाले जीवोंमें सतरह प्रकृतियों का भी अवक्तव्य भङ्ग नहीं है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओधके समान है। माया कपायवाले जीवास सोलह प्रकृतियोंका अवक्तव्य पद नहीं है। शेष प्रकृतियोंका भी भङ्ग अोधके समान है । लोभ कपायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका प्रवक्तव्य पद नहीं है। शेष पदोंका भङ्ग ओघके समान है। ६७०. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों और मिथ्यात्वका भङ्गः सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । विभङ्गज्ञानी जीवोंमें ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। मिथ्यात्व, देवगति, पश्चेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्रास, चादर, पर्याप्त और प्रत्येकके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इससे आगेके पदोंका भङ्ग ध्रव बन्धवाली प्रक्रतियोंके समान है। सातावेदनीय, असातावेदनीय. सात नोकषाय, तीनगति, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, स्थिर आदि छह युगल और दो गोत्रकी संख्यातगुणवृद्धि और संख्यात गुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं । इनसे अवक्तव्य पदके बन्धक जीत्र संख्यातगुणे हैं। इससे आगेके पदोंका भङ्ग ध्रुववन्धवाली प्रकृतियों के समान है । ६७१. श्राभिनिवाधिकज्ञानी, अतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुपवेद, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके अवक्तव्य पदके बन्धक जीय सबसे स्तोक हैं। इनसे असंख्यानगुणवृद्धिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव संख्या नगगे हैं। इनमे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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