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________________ उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयास परूवणा ३ सिया अबं० । यदि बं० तं तु० । एस० सिया लिय० अणु० दुभागूणं बंधदि । रदि यि० । तं अबंधगो । बंदि । पुरिस० सिया बं० बं० सिया अ० । यदि बं० तु । एवं रदीए वि । ४. रियायु० उक्क० हिदिबंधतो तिरिण आयू मणस्स बंधगो । एवम एण ५. गिरयग० उक्क० हिदिबं० पंचिंदि० वेउव्वि ० -तेजा० ०क० -हु'डसंठा ० - वेउव्त्रि ०अंगो००-वरण ०४ - णिरयाणु० - अगुरु ०४ - अप्पसत्थ० -तस०४ - अथिरादिछक्क - रिणमि० रिय० बं० । तं तु० । एवं वेडव्वि ० - वेउव्वि ० गो० - रियापु० । ० ६. तिरिक्खग० उक्क० द्विदिबंध • ओरालि० - तेजा ० - क० -- हुडसं ०-वरण ०४तिरिक्खाणु० गु०४ - बादर- पज्जत्त- पत्तेय० अथिरादिपंच० - णिमि० गिय० । तं तु० । एइंदि० - पंचिंदि० ओरालि० अंगो० - असंपत्त० - आदाउज्जो०० अप्पसत्थ-तसहोता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है, तो वह नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है। नपुंसक वेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । रतिका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि श्रनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है, तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार रतिके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ४. नरकायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तीन आयुका अबन्धक होता है । इसी प्रकार परस्परमें अबन्धक होता है । ५. नरकगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है, वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्टस्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है, तो वह उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है । इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वीकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए । ६. तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है, तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है । एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक श्रङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तापादिका संहनन, श्रातप, उद्योत, १. मूलप्रतौ अथिरादिपंच णिमि० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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