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________________ ३०८ महापंधे ट्ठिदिबंधाहियारे विसे । यहि विसे । देवगदि-वेउवि०--आहार० ज०हि० संखेज । यहि. विसे । णिरयग० जट्टि संखेंज । यहि. विसे० । ६६६. देवा भवण --वाणवेत. णिरयोघं । जोदिसिय याव सहस्सार त्ति विदियपुढ विभंगो । आणद याव गवगेवज्जा त्ति सो चेव भंगो। गवरि तिरिक्वायु०तिरिक्खगदी पत्थि । अणुदिस याव सव्वहा त्ति सव्वत्थोवा मणुसायु० ज०ट्टि० । यहि विसे । पंचपोक-मणुसग-तिएिणसरीर-जस-उच्चा० ज.हि. असंखेंज । यहि विसे० । अरदि-सोग--अजस० ज हि विसे० । यहि विसे । पंचणा०छदसणा-सादा०-पंचंत० ज०हि. विसे० । यट्टि. विसे । असादा० ज०टि. विसे । यहि० विसे० । वारसक० जट्ठि० विसे । यहि विसे० । ६६७. पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्ता० सव्वत्थोवा तिरिक्ख०-मणुसायुग० जहि । यहि विसे । लोभसंज० ज०हि संखेंज । यहि. विसे । पंचणा०-चदुदंसणापंचंत० ज.हि. संखेज०। यहि विसे० । जस०-उच्चा० ज हि संखेंज। यहि. विसे० । सादा० जहि. विसे० । यहि. विसे । मायासंज. जहि. इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवगति, वैक्रियिक शरीर और आहारक शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। ६६६. सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर देवों में सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है। ज्योतिषियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। अानतसे लेकर नौ ग्रैवेयक तक वही भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि यहाँ तिर्यञ्चायु और तिर्यञ्चगति नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकषाय, मनुष्यगति, तीन शरीर, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयशःकीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे बारह कषायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। ६६७. पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे लोभ संज्व लनको जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावारण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे माया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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