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________________ परत्थाट्ठिदिश्रप्पा बहुगपरूवणा ३०९ संखेज्ज० ० । यहि० विसे० । माणसंज० ज०हि० विसे० । यहि० विसे० । कोधसंज० ज० हि० विसे० | यहि० विसे० । पुरिस० ज०ट्ठि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । दो आयु० ज० द्वि० संखेज्ज० । यहि ० विसे० । चदुणोक० - देवर्गादि- तिरिणसरीर ० ज० हि० संखेज्ज० । यद्वि० विसे० । उवरिं पंचिदियतिरिक्खभंगो । ६६८. तस-तसपज्जत्तगेसु सव्वत्थोवा यहि० विसे० । लोभसंज० ज० हि० संखेज्ज० । रिय- देवायु० ज० हि० संखेज्ज० । यट्टि० विसे० सरीर० ज०० असंखेज्ज० । यहि० विसे० । विसे० | यहि० विसे० । इत्थि० ज० द्वि० विसे० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । णीचा० ज० हि० तिरिक्खग० ज० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । पंचदंस० ज० हि० विसे० | यहि० विसे० | असादा० ज० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । बारसक० ज०ट्ठि० विसे० तिरिक्ख मणुसायु० ज० डिer | यहि ० विसे० । उवरिं श्रघं याव । चदुणोक० मणुसग ० - तिरिपअरदि-सोग - अजस० ज० हि० । संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे मानसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे दो आयुओं का जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे चार नोकषाय, देवगति और तीन शरीर का जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे आगे पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है 1 ६६८. त्रस और त्रस पर्याप्त जीवों में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे लोभ संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे श्रागे नरका और देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इसके प्राप्त होने तक श्रोधके समान भङ्ग है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे चार नोकषाय, मनुष्यगति और तीन शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध प्रसंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे अरति शोक और अयशःकीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे १ मूलप्रतौ ज० यहि० विसे० । विसे० । यहि० स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका जधन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच दर्शनावरणका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे बारह कषायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थिति Jain Education International एवं स ० विसे० । द्वि० विसे० । यद्वि० इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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