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________________ उक्कत्सफोसरणपरूवरणा २२५ 1 ० बारह० । गिरय- देवायु० - तिरिण जादि ० - आहारदुर्गं उक्क० अणु ० खेत्तं । तिरिक्खमणुसायु० - तित्थय० उक्क० खेचं । अणु० अट्ठचोद्दस० । गिरयगदि- गिरयाणुपु० उक्क० अणु० छच्चोद्दस०| देवगदि देव णु० उक्क० अणु० ओघं । मणुसग ० -- मणुसाणु ० आदाब ० - उच्चा० उक्क० अणु० अडचोद्दस० । एइंदि००-धावर० उक्क० अट्ठ-णवचो० । अणु० अट्ठचो० सव्वलो० । वेउन्त्रि० - वेउब्वि० गो० उक्क० छबोंद्दस० । अणु० बारहचों० । उज्जो० – बादर० - जसगि० उक्क० अणु० अट्ठ-तेरह० | सुहुम-अपजतसाधार० उक्क० अणु० लोग० असंखे० सव्वलो० । एवं पंचमण० - पंचवचि०चक्खुदंसणित्ति | ४९१. कायजोगि० ओघं । ओरालिय० तिरिक्खोघं । णवरि आहारदुगतित्यय० मणुसभंगो। ओरालिय मि० दोआ यु० -सुहुमपगदीणं सत्थाणं उक्क० लो० असंखेज ० सव्वलो० । अणु० सव्वलो० । वरि मणुसायु० अणु० लो० असंखेज बारह वटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकायु, देवायु, तीन जाति और हारक a sant उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और तीर्थकर प्रकृति की उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवगति और देवगत्यानुपूर्वीकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवों का स्पर्शन ओघ के समान है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप और उच्चगोत्र इनकी उत्कृट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । एकेन्द्रिय और स्थावर इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौबडे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिक शरीर और वैकियिकांगोपांग इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत, बादर और यश कीर्तिकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ वटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार पाँच मनोयोगी, पांच वचनयोगी और चक्षुदर्शनी जीवोंके जानना चाहिए । ४६१. काययोगी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है। श्रदारिक काययोगी जीवोंमें सामान्य तिर्यश्वोंके समान है । इतनी विशेषता है कि द्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्योंके समान है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें दो आयु और सूक्ष्म प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यायुकी अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके २६ Jain Education International ० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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