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________________ जहण्णपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा ३७८, मणुस०३ खवगपगदी० ओघं । देवगदि०४ आहार०भंगो० । णिरयगदि-णिरयाणु० अोघं । सेसं पढमपुढविभंगो। मणुसअपज्जत्तेसु पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो। __३७६. देवेसु णिरयोघं । णवरि एइंदिय-आदाव-थावरं णादव्वं । एवं भवण०वाणवेत० । जोदिसि०-सोधम्मीसा विदियपुढविभंगो। णवरि एइंदिय-आदाव-थावर भाणिदव्वा । सणकुमार याव सहस्सार त्ति विढियपुढविभंगो। एवं चेव आणद याव गवगेवज्जा त्ति । एवरि तिरिक्खगदिचदुकं वज्ज । अणुदिस याव सव्वहा त्ति पढमदंडओ विदियपुढविभंगो । एवं विदियदंडो वि । असादा०-मणुसायु० णि । ३८०. सव्वएइंदिएसु तिरिक्खोघं । विगलिंदियपज्जत्तापज्जत्त--पंचिंदिय--तसअपज्जत्त० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । पंचिंदिय--पंचिंदियपज्जत्त खवगपगदीणं ओघं । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो । ३८१. पंचकायाणं तिरिक्खोघं । णवरि तेउ०--वाउ० तिरिक्खगदि०--तिरिक्वाणु-णीचा० पुन्वं कादव्वं । तस-तसपज्जत्ता खवगपगदीणं मूलोघं । सेसाणं मणुसोघं । एवरि वेउवियरकं ओघं । ३७८. मनुष्यत्रिकमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। देवगतिचतुष्कका भङ्ग आहारक शरीरके समान है। नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पहली पृथिवीके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। ३७९. देवोंमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर प्रकृतियाँ जाननी चाहिए । इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवोंके जानना चाहिए। ज्योतिष्क, सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर प्रकृतियाँ कहनी चाहिए । सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें दूसरी पृथ्वीके समान भङ्ग है। तथा इसी प्रकार प्रानत कल्पसे लेकर नौ ग्रेवेयक तकके देवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगति चतुष्कको छोड़कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें प्रथम दण्डकका भङ्ग दुसरी पृथिवीके समान है। इसी प्रकार दूसरा दण्डक भी जानना चाहिए । तथा असाता वेदनीय और मनुष्यायुका नियमसे बन्धक होता है। ३८०. सब एकेन्द्रियों में सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भंग है। विकलेन्द्रिय पर्याप्त, विकलेन्द्रिय अपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। पञ्चेन्द्रिय और पश्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। ३८१. पाँच स्थावर कायिक जीवोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र इनको पहिले कहना चाहिए। प्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंमें क्षपक प्रकृतियाँका भङ्ग मूलोधके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य मनुष्योंके समान है। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिक छः ओघके समान है। २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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