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________________ पगदिसमुदाहारे सत्थाणअप्पाबहुगं तिरिक्खग० द्विदिवं. असंखज्जगु० । सेसाणं पगदीणं ओघं । एवं सत्तसु पुढवीसु० । ६८४. तिरिक्खेसु दंसणावरणीय-वेदणीय-मोहणीय०णिरयभंगो। णवरि मोहणीयअपचक्खाणा०४ द्विदिवं० विसे० । अट्ठकसा० द्विदिवं० विसे । मिच्छ० द्विदिबं० असंखेज्जगु० । सव्वत्थोवा० तिरिक्ख-मणुसाणं ट्ठिदिबं० । देवायु० द्विदिबं. असंखें. ज्जगु० । णिरयायु० द्विदिवं. असंखेज्जगु० । सव्वत्थो० देवगदि० द्विदिवं०। मणुसगदि. द्विदिवं. असंखेज्जगु० । तिरिक्खगदि० द्विदिवं. असंखेज्जगु० । णिरयगदि० द्विदिवं. असंखज्जगु०। सव्वत्थो० चदुरिंदि० द्विदिवं० । तीइंदि० हिदिबं० विसे । बेइंदि० हिदिवं० विसे० । एइंदि० द्विदिवं० विसे० । पंचिंदि० द्विदिवं. असंखेन्जगुः । सव्वत्थो० ओरालि० द्विदिवं० । वेउवि० द्विदिवं. असंखेज्जगु० । तेजा०-क० द्विदिवं० विसे० । संठाणं संघडणं ओघं। णवरि खीलियसंघडणादो असंपत्तसेव० विसे० । सेसाणं ओघं । एवं पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-जोणिणीसु।। ६८५. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तगेसु सव्वत्थोवाणि सादावेद० द्विदिवं० । असादा० द्विदिव० असंखज्ज०। सव्वत्थोवा० पुरिस० द्विदिवं० । इत्थिवे० द्विदिवं. असंखेंज्जगु० । हस्स-रदीणं हिदिबं. असंखज्जगु० । णवुस० द्विदिवं. असंखज्जगु० । अरदिवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे तिर्यञ्चगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंका भंग ओधके समान है । इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिये । १८४. तिर्यश्चोंमें दर्शनावरणीय, वेदनीय और मोहनीयका भंग नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि मोहनीयमें अप्रत्याख्यानावरण चारके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे आठ कषायोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे मिथ्यात्वके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । तिर्यश्चायु और मनुष्यायुके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे देवायुके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे नरकायुके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। देवगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे मनुष्यगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे तिर्यश्चगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे नरकगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। चतुरिन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे त्रीन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे द्वीन्द्रिय जातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे एकेन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे पञ्चेन्द्रियजातिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । औदारिक शरीरके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे वैक्रियिकशरीरके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुण हैं । इनसे तैजस और कार्मणशरीरके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । संस्थानों और संहननोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें कीलकसंहननसे असम्प्राप्तामृपाटिकासंहननके स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। शेष प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार पश्चेन्द्रियतिर्यश्चपर्याप्त और पञ्चन्द्रियतिर्यश्चयोनिनी जीवोंमें जानना चाहिये।। ६५. पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चअपर्याप्त जीवोंमें सातावेदनीयके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे असातावेदनीयके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । पुरुषवेदके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे स्त्रीवेदके स्थितिबन्धाध्यावसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे हास्य और रतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे नपुंसकवेदके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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