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________________ जीवअप्पाबहुगपरूवणा २६१ भावपरूवणा ५६५. भावं दुविधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उकस्सए पगदं । दुवि०--ओघे० आदे० । ओघे० सञ्चपगदीणं उक्क० अणु० बंधगा ति को भावो ? ओदइगो भावो । एवं अणाहारग ति णेदव्वं । ५६६. जहएणए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे। [ोघे०] सव्वपगदीणं जह० अज० को भावो ? ओदइगो भावो । एवं याव अणाहारग त्ति णेदव्वं । एवं भावं समत्तं अप्पाबगपरूवणा ५६७. अप्पाबहुगं दुविधं-जीवअप्पाबहुगं चेव हिदिअप्पाबहुगं चेव । जीवअप्पाबहुगं तिविधं--जहएणयं उकस्सयं अजहएणअणुकस्सयं चेव । उकस्सए पगदं। दुवि०-अोघे० आदे० । ओघे० तिरिणायुगाणं वेउवियछ--तित्थय० सव्वत्थोवा उक्कस्सहिदिबंधगा जीवा । अणुक्कस्सहिदिबंधगा जीवा असंखेंजगुणा । आहारदुर्ग सव्वत्थोवा उक्क जीवा । अणु० जीवा संखेंजगुणा। सेसाणं सव्वत्थोवा उक्का जीवा । अणु जीवा अणंतगु० । एवं अोघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि-ओरालियकाओरालियमि०-कम्मइ०--णवुस--कोधादि०४-मदि-सुद०--असंज०--अचक्खुदं० भावप्ररूपणा ५६५. भाव दो प्रकारका है जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका कौन भाव है? औदयिक भाव है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। ५६६. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघसे सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका कौन भाव है ? औदयिक भाव है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणतक जानना चाहिए । इस प्रकार भाव समाप्त हुआ। अल्पबहत्वप्ररूपणा ५६७. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जीव अल्पवहुत्व और स्थिति अल्पबहुत्व । जीव अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्य उत्कृष्ट । उत्कृष्ट का प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे तीन श्रायु, वैक्रियिक छह और तीर्थङ्कर इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे अल्प हैं। इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। आहारकद्विककी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव सबसे अल्प हैं। इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंकी उत्कट स्थितिके बन्धक जीव सबसे अल्प हैं। इनसे अनत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिथकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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