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________________ १०३ उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा आणु०-उज्जो० सिया । तंतु० । एवमेदाओ ऍक्कमेक्स्स । तं तु० । २०६. सादा० उ०हि०व० अोघं । एवरि एइंदि०-आदाव-थावरं अटारसिगाहि सह सएिणयासे साधेदव्वं । सेसाणं मूलोघं । __ २०७. अवगदवे० आभिणिबोधि० उ०हि बं० चदुणा०-णवदंसणा०-सादा०चदुसंज०-जस०-उच्चा०-पंचत० णि० बं० । णि० उक्क० । एवं एदाओ ऍक्कमेक्केहि उकस्सा । २०८. कोधादि०४-मदि०-सुद०-विभंगे मूलोघं । आभिणि-सुद-बोधि०आभिणि. उ०ट्टि बं० चदुणा०-छदंसणा०-असादा०--बारसक०-पुरिस-अरदिसोग-भय--दुगु०--पंचिंदि०--तेजा--क०--समचदु०-वएण०४--अगु०४-पसत्थवि०तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-अजस-णिमि-उच्चा०-पंचत० णि. बं० । तं तु० । मणुसगदि-देवगदि-ओरालि०-वेउव्वि०-दोअंगो-वज्जरि०-दोआणु०है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवीं भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए और ऐसी अवस्थामें यह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भो बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। २०६. साता वेदनीयको उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवका सन्निकर्ष श्रोधके समान है। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर इनको अठारह कोड़ा-कोड़ी सागरकी स्थितिवाली प्रकृतियोंके सन्निकर्ष में साध लेना चाहिए। तथा शेष प्रकृतियोंका सन्निकर्ष मूलीघके समान है। २०७. अपगतवेदवाले जीवों में श्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन. यश-कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार ये सब प्रकृतियों परस्पर एक दूसरेके साथ उत्कृष्ट स्थितिकी बन्धक होती हैं। २०८. क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभङ्गज्ञानी जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंका सन्निकर्षमूलोकेसमान है। श्राभिनिबोधिक ज्ञानी,श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीवचार ज्ञानावरण, छः दर्शनावरण, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयश-कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुस्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्यगति, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी और तीर्थकर इनका कदाचित् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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