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________________ २१५ जहएणखेत्तपरूवणा संखेज० । सेसाणं यम्हि लोगस्स असंखेज० तम्हि लोगस्स संखेज० काव्यो । वणप्फदि-णियोद० थावरपगदीणं उक्क• अणु० सबलो० । मणुसायु. ओधो । तिरिक्खायु०-तसपगदीणं लोग. असंखेन्ज । अणु० सव्वलोगे। बादरवणफदिणियोद० पजत्तापजत्तगाणं च बादरपुढवि०अपज्जत्तभंगो । सेसाणं णिरयादि याव सणिण त्ति संखेजासंखेजरासीणं उक्क० अणु० लोग० असंखेजदिभागे। एवं उक्कस्सं समत्तं ४७४ जहएणए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०--चदुदंसणा०-- सादा०-चदुसंज-पुरिस०-मणुसगदि-मणुसाणु०-जस०-उच्चा०-पंचंत० जह० लो० असंखेज्ज० । अज० सव्वलोगे। तिरिणायु०-वेउधियछ.-आहारदुग-वित्थय० जह० अज० उक्करसभंगो । तिरिक्खायु०--सुहुमणाम० ज० अज० सव्वलो० । सेसाणं ज० लो० संखेन्ज । अज. सबलो० । एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरालि०-णवंस कोधादि०४.-अचक्खु०--भवसि०-आहारग त्ति । ४७५ तिरिक्खेसु वेउन्वियछ०-तिरिणायु०-मणुस०-मणुसाणु०-उच्चा० ओघं। तिरिक्खायु०--सुहुमणामाणं जह० अज० सव्वलो० । सेसाणं ओघं । एवं एइंदि०कायिक जीवों में आयुकी अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण है। शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीवोंका जहाँ लोकका असंख्यातवों भाग क्षेत्र कहा है,वहाँ वह लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण जानना चाहिए। वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें स्थावर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुकृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । मनुष्यायुका भंग ओघके समान है। तिर्यश्वायु और त्रस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है , तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवों क्षेत्र सब लोक है। बादर वनस्पतिकायिक और निगोद जीव तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका भंग बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त जीवोंके समान है। शेप नरकगतिसे लेकर संज्ञी मार्गणा तक संख्यात और असंख्यात राशिवाले जीवोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इस प्रकार उत्कृष्ट क्षेत्र समाप्त हुआ। ४७४. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार सं ज्वलन, पुरुषवेद, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी जघन्य स्थितिके वन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । तीन आयु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र उत्कृष्टके समान है । तिर्यश्चायु और सूक्ष्म इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके वन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागका प्रमाण है और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सव लोक है । इसी प्रकार ओघके समान काययोगी, औदरिक काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कपायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। ४७५. तियञ्चोंमें वैक्रियिक छह, तीन आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग अोधके समान है । तियञ्चायु और सूक्ष्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बंधक जीवोंका क्षेत्र सब For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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