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________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे S ६४०. सत्तमीए सव्वत्थोवा तिरिक्खायु० उ०द्वि० । यद्वि० विसे० । मगुसग०उच्चा० उक्क०डि० असंखेज ० । यहि विसे० । पुरिस० - हस्स रदि--जस०-- उच्चा० उ०वि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । सादा० - इत्थि० उ०हि० विसे० । यहि० विसे० । सगदिपंच-तिरिक्खगदि तिएिग सरीर अजस० णीचा० उक्क० हि० विसे० | यहि० विसे० । उवरि ओघं । . I 3 ६४१. तिरिक्खे सव्वत्थोवा तिरिक्ख मणुसायु० उ० हि० । यट्टि० विसे० । देवायु० उक०हि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । गिरयायु० उ० द्वि० बिसे० । यहि० विसं ० ० । पुरिस इस्स-रदि देवगदि जस० उच्चा० उ० द्वि० संखेज्ज० । यद्वि० विसे० । सादा० - इत्थि० - मणुस ग० उ० द्वि० विसे० । यद्वि० विसे० । तिरिक्खग० ओरालि ० उ० हि० विसे० । यहि० विसे० । एवंसगादिपंच--गिरयगदि -- वेउव्व०- तेजा० क०अजस० णीचा० उ०ट्टि० विसे० । यट्टि० विसे० । उवरि श्रघं । एवं पंचिंदियतिरिक्ख०३ । २६४ ६४२. पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तगेसु सव्वत्थोवा तिरिक्ख मणुसायु० उ० हि० । यहि बिसे० । पुरिस० उच्चा० उ०डि० असंखेज्ज० । यहि० विसे० । इत्थि० e ६४०. सातवीं पृथिवी में तिर्यञ्चायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद, हास्य, रति, यशः कीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीय और स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेद आदि पाँच, तिर्यञ्चगति, तीन शरीर, यशःकीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आगेका अल्पबहुत्व श्रोघके समान है । ६४१. तिर्यञ्चों में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद, हास्य, रति, देवगति, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीय, स्त्रीवेद और मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगति और श्रदारिक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नपुंसक वेद आदि पाँच, नरकगति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, यशःकीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यरिस्थतिबन्ध विशेष अधिक है। इससे श्रागेका अल्पबहुत्व श्रोत्रके समान है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में जानना चाहिए । ६४२. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च श्रपर्याप्तकों में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद और उच्च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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