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________________ ६६ महापंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अप्पसत्य -पज्जत्त०-दुस्सर० सिया० चदुभाग० । दोसंठा०-दोसंघ०-अपज्जत्त० सिया० संखेंज्जगु० । मणुसाणु० णिय बं० । णि तं तु० । एवं मणुसाणु० । १२८. देवगदि० उक्क हिदिवं० पंचणा-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भयदुगु-पंचिंदि०-घेउव्वि०--तेजा०-क०-वेउवि०अंगो०-वएण०४--अगु०४--तस०४णिमि-पंचंत० णि. बं. दुभाग० । सादावे-पुरिस०-हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस०सिया० । तं तु । असादा-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० सिया० दुभागणं बं० । इत्थिवे० सिया० तिभागु० । समचदु०-देवाणु०-पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर-आदेउच्चा०णिय० बं० । तं तु० । एवं देवाणु । १२६. एइंदि० उक्क.हिदि०बं० पंचणा-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०सोलसक०-णवुस०-अरदि-सोग-भय-दुगु०--तिरिक्खगदि-ओरालिय०--तेजा०-क०-- दो संस्थान, दो संहनन और अपर्यात इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणा हीन स्थितिका बन्धक होता है । मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। १२८. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट,दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। सातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट,दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । स्त्री वेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट,तीन भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। समचतुरस्त्र संस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और उच्चगोत्र इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, नियमसे एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार देवगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। १२६. एकेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति,शोक,भय, जुगु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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