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________________ उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा १२६. तिरिक्खगदि० उक्क हिदिबं० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०सोलसक-णवुस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-ओरालि०-तेजा-क०-हुड-चएण०४तिरिक्खाणु०-अगु०४-बादर-पज्जत्त-पत्तेय-अथिरादिपंच-णिमि०-णीचागो००-पंचंत० णिय० ० । तं तु० । एइंदि०-पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०-असंपत्त०-आदाउज्जो०अप्पसत्थ-तस-थावर-दुस्सर० सिया० । तं तु । एवं ओरालि०-[ोरालि अंगो०-] तिरिक्खाणु० उज्जो । १२७. मणुसगदि० उक्क छिदिबं० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०सोलसक-अरदि-सोग-भय-दुगु-पंचिंदि०[ओरालि-तेजा-क०-ओरालि०अंगो०वएण०४-अगु०-उप०-तस-बादर-पत्ते०-अथिरादिपंच-णिमि०-णीचा०-पंचतराणिय. वं० चदुभागू० । इत्थिवे० सिया० । तं तु । णवुस०-हुंडसं०-असंपत्त०-पर०-उस्सा० ___ १२६. तिर्यभ्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, प्रस, स्थावर और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसीप्रकार औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत प्रकृतियोंकी प्रमुखतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। १२७. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, आसातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, वादर, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट चारभाग न्यून स्थितिका वन्धक होता है। स्त्रीवेदका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। नपुं. सक वेद, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त और दुःखर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट चार भाग न्यून स्थितिका वन्धक होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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