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________________ १४३ जहण्णसत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा ३०३. पच्चक्खाणा कोध० ज हि बं० तिएिणकसा०णि बं० । तं तु० । चदुसंज-पुरिस० णि. वं. असंखेज्जगु० । हस्स-रदि-भय-दुगु णि. बं. संखेज्जगुः । एवं तिएिणकसा० । चदुसंजल-पुरिस० ओघं ।। ३०४. इत्थिवे. जहि बं० मिच्छ०-बारसक०-भय-दुगु पि. बं० संखेज्जगु० । हस्स-रदि-अरदि-सोग सिया० संखेज्जगु० । चदुसंज० णिबंअसंखेज्जः । एवं गवुस० । ३०५. हस्स० ज०हि०बं० चदुसंज०-पुरिस० णि वं. असंखेज्जगु० । रदिभय-दुगु णि• बं० । तं तु० । एवं रदि-भय-दुगुं०। ३०६. अरदि० जहि०० चदुसंज-पुरिस० णिबं. असंखेज्जगुः । भय-दुगुणि बं० संखेज्जगु० । सोग० णि । तं तु० । एवं सोग० । ३०३. प्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तीन कषायका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। चार संज्वलन और पुरुषवेदका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे. अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । चार संज्वलन और पुरुषवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है। ३०४. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, बारह-कषाय, भय और गुप्साका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, अरति और शोकका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। चार संज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नपुंसक वेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३०५. हास्यकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार संज्वलन और पुरुषवेदका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। रति, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। ३०६. अरतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार संज्वलन और पुरुषवेदका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शोकका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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