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________________ महाबंधे टिदिबंधाहियारे णिद्दा-पचला. णिय० बं० संखेज्जगुण । चदुदंस० पि. बं. असंखेज्जगुः । एवं थीणगिद्धि०३। ३००. णिद्दाए जहि०० पचला णिय० बं० । तं तु ० । चदुदंस० णि० बं० असंखेज्जगु० । एवं पचला । चदुदंस० ओघं ।। ३०१. मिच्छ० ज०हि बं० अणंताणुबंधि०४ णि बं० । तं तु० । अहकसा०हस्स-रदि-भय-दुगु० णि. बं० संखेज्जगु० । चदुसंज-पुरिस० णि० ब० असंखेंज्जगु० । एवं अणंताणुवंधि०४।। ३०२, अपच्चक्खाणकोध. जहि०० तिएिणकसा. णि बं० । तं तु० । पच्चक्खाणा०४-हस्स-रदि-भय-दुगु णि. बं० संखेज्जगु० । चदुसंज०-पुरिस णि बं• असंखेज्जगु० । एवं तिएिणक० । बन्धक होता है। चार दर्शनावरणका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार स्त्यानगृद्धि तीनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३००. निद्राकी जघन्य स्थितिकी बन्धक जीव प्रचलाका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि प्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। चार दर्शनावरणका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार प्रचला प्रकृतिकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । चार दर्शनावरणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है। ३०१. मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्कका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। आठ कषाय, हास्य, रति, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। चार संज्वलन और पुरुषवेदका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी-चारको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३०२. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तीन कषायका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। प्रत्याख्यानावरण चार, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। चार संज्वलन और पुरुषवेदका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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