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________________ मु चदुसंज • अस्थि संखेज भागवड्डि- हाणि अवट्ठि ० - अवत० । ८५६. कोघे पंचणा० चदुदंसणा ० चदुसंज ० पंचंत० श्रत्थि चत्तारिखड्डि-हाणिअव०ि । सादावे० - पुरिस० [० - जस० उच्चा० अत्थि चत्तारिवड्डि- हाणि अवट्ठि ० - अवत्त० । सेसाणं ओघं । माणे पंचना० चदुस० तिणिसंज० - पंचत० अस्थि चत्ताविड्डि-हाणिअवट्टि ० | कोधसंजलण० सादभंगो । सेसं ओघं । मायाए पंचणा० चदुदंस - दोसंज ०पंचत० अत्थि चत्तारिखड्डि- हाणि अवट्ठि ० | सेसाणं ओघं । लोभे ओघं । गर्वा चौदस ० अत्तव्वं णत्थि | I 2 ८६०. मदि० - सुद० धुविगाणं अस्थि तिण्णिवड्ढि हाणि - अवट्टि । चदुआयु० ओघं। मिच्छ० सेसाणं अस्थि तिण्णिवड्डि- हाणि-अवट्ठि ० अवत्त ० । एवं विभंग ० - अब्भवसि ०मिच्छादि ० । णवरि अन्भवसि ० -मिच्छादि० मिच्छत्तस्स अवत्त० जत्थि | ४०७ ८६१, आभिणि० - सुद०-अधि० पंचणा० चदुदंसणा ० -सादा ० चदुसंज० - पुरिस०जस गि० उच्चा० - पंचंत० अत्थि चत्तारिवड्डि- हाणि अवट्ठि ० अवत्त० । सेसाणं अस्थि तिष्णिवड्डि- हाणि - अवट्टि० ० - अवत्त० । एवं मणपज० - संजद - अधिदं ० - सम्मादि ० - खड्ग ० उवसम० । चार संज्वलनकी संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। ८५६. क्रोध कषायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं । सातावेदनीय, पुरुषवेद, यशःकीर्ति, और उच्चगोत्रकी चार वृद्धि, चार हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। मान कषायवाले जीवों में पाँच ज्ञानावरण चार दर्शनावरण, तीन संज्वलन और पाँच अन्तरायकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। क्रोध संज्वलनका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग औघके समान हैं | माया कषायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, दो संज्वलन और पाँच अन्तरायकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग के समान है। लोभ कषायवाले जीवोंमें ओघ के समान है। इतनी विशेषता है कि चौदह प्रकृतियों का अवक्तव्य पद नहीं है । ८६०. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव हैं। चार आयुओं का भङ्ग ओघके समान है । मिथ्यात्व और शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। इसी प्रकार विभङ्गज्ञानी, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें मिध्यात्वका अवक्तव्य पद नहीं है । ८६१. श्रभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी चार वृद्धि, चार हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीव हैं। इसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानी, संयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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