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________________ २३१ उक्करसफोसणपरूवणा अट्ठचोदस० । एवं प्रोधिदंस०--सम्मादिहि-खइग०. वेदग०--उवसमस० । णवरि खइगे देवगदि०४ खेतं । तित्थय० उक्क० अणु० अट्ठचौ०।। ४९८, मणपज्ज०--संजद-सामाइ०-छेद।०--परिहार०-सुहमसं० खेतं । संजदासंजदे सादावे०-हस्स-रदि-यिर-सुभ-जस० उक्क० अणु० छचोदस० । देवायु-- तित्थय० उक्क० अणु० खेत्तं । सेसाणं उक्क० खेतं । अणु० छच्चाद्दस० । असंजद०-- अचखुदं ओघं। ४६६. किण्णले. णqसगभंगो । णवरि णिरयगदि-वेउवि० --बेउन्धि०अंगा० - णिरयाणु० उक्क० अणु० छच्चॉदस ० । देवगदि-देवाणु०--तित्थय० उक्क० अणु० खेत्तभंगो। णील-काऊर पढमदंडओ णqसगभंगा। णवरि चत्तारि बेच्चोंदस० । सादा-हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस० एदाओ पढमदंडओ भाणिदवाओ। णिरयग०-वैउत्रिःवेउत्रि०अंगो०-णिरयाणु० उक्क० अणु० चत्तारि-बे चौद्दस० । देवगदि०-देवाणु० किण्णभंगो । सेसाणं णवुसगभंगो। वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें देवगति चतु:कका भङ्ग क्षेत्रके समान है तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ४६८. मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धि संयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। संयतासंयत जीवोंमें सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश-कीर्ति इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायु और तीर्थङ्कर इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंयत और अवक्षुदर्शनी जीवोंका भंग ओघके समान है। ४६. कृष्णलेश्यावाले जीवोंका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि नरकगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकांगोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वी इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगति, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्कर इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंमें प्रथम दण्डकका भंग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने क्रमसे कुछ कम चार बटे चौदह राजू और कुछ कम दो बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश कीर्ति इनकी मुख्यतासे स्पर्शन प्रश्रम दण्डकके समान कहना चाहिए। नरकगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वी इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने क्रमसे कुछ कम चार बटे चौदह राजू और कुछ कम दो बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगति और देवगत्यानुपूर्वीको मुख्यतासे स्पर्शन कृष्ण लेश्यावाले जीवोंके समान है तथा शेष प्रकृतियोंकी मुख्यतासे स्पर्शन नपुंसकवेदी जीवोंके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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