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उक्कस्ससत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
लिमि० यि० संखें० भागू० । दोसंघ० उज्जो ० सिया वं० सिया अ० । [ यदि बं० ०] संर्खेज्ज०भागू० । श्रद्धणारा० सिया । तं तु० । एवं श्रद्धणारा० । एवं वामरण० । वरि असंपत्त० सिया० संखेज्ज० भागू० । खीलिय० सिया बं० । तं तु० । एवं० खीलिय० ।
१७. ओरालि० अंगो० उ० द्वि०बं० तिरिक्खग०-पंचिंदि०-ओरालि० - तेजा०क०-हुंंडसं०-असंप०-वरण ०४ - तिरिक्खाणु० गु०४ - पसत्थ० -तस०४ - अथिरादिछ०लिमि० लिय० वं । तं तु० । उज्जो० सिया० । तं तु० | एवं असंप० ।
१८. वज्जरि० उक० द्विदिवं पंचिदि० ओरालि० -तेजा० क० - ओरालि० अंगो०-वरण ०४ - अगु०४-तस०४ णिमि० लिय० वं० । णि० अणु० दुभागू० । तिरिक्खगदि हुड० - तिरिक्खाणु० उज्जो० - अप्पसत्थ० अथिरादिछ० सिया बं० सिया न्यून स्थितिका बन्धक होता है । दो संहनन और उद्योत प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। अर्धनाराचसंहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट बन्धक भी होता है और अनुत्कृष्ट बन्धक भी होता है । यदि अनुत्कृष्ट बन्धक होता है, तो नियमसे एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अर्धनाराच संहननके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार वामन संस्थान के आश्रय से सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । कीलक संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् बन्धक होता है। यदि बन्धक है, तो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है, तो एक समय न्यून से लेकर एल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार कीलक संहननके श्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१७. औदारिक आङ्गोपाङ्गकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, श्रसम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। वह उत्कृष्ट भी बाँधता है और त्कृष्ट भी बाँधता है । यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है, तो एक समय न्यून से लेकर पल्या असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । उद्योत प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट भी बाँधता है और अनुत्कृष्ट भी बाँधता है । यदि अनुत्कृष्ट बाँधता है, तो एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार सप्राप्तासृपाटिका संहननके आश्रयसे सन्निकर्षं जानना चाहिए ।
१८. वज्रर्षभनाराचकी उत्कृष्टस्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, चतुष्क और निर्माण प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति और अस्थिर आदि छह प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और
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