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________________ ४६२ महाधे ट्ठदिबंधाहियारे वादखाउका बादरवा उकाइयअपज्जत्त । बादरपुढवी० आउका ० तेउका० तेसिं बादरअपज्जत्त बादरवणफदिपत्तेय ० अपज्जत वादरएइंदियभंगो। णवरि जम्हि लोगस्स संज्जदिभागो म्हि लोगस्स असंखेज्जदिभागो कादव्वो । ९४१. पंचिंदिय -तस०२ पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० पंचं तराइगाणं तिष्णिवड्डिहाणि॰ अट्ठचद्द० सव्वलो० । असंखेज्जगुणवड्डि- हाणि अवत्त • खेत्तभंगो । श्रीणगिद्धि० ३ मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ - णपुंस० - तिरिक्खग० एइंदि० इंडसं ०-तिरिक्खाणु ० थावरदूभग अणादें ० णीचा० तिण्णिवड्डि हाणि अवडि० अट्ठचो६० सव्वलो० । अवत्त० अट्ठचो० | णवरि मिच्छ० अवत्त • अट्ठ-बारह चोदस० । णिद्दा- पचला-भय- दुगुं० तेजइगा दिणव- परघादुस्सा० पज्जत - पत्ते अवत्त० खेत्तभंगो । तिण्णिवड्डि हाणि अवडि० अट्ठचो६० सव्वलो ० | सादावे० तिण्णिवड्डि हाणि अवट्ठि ० -अवत्त० अट्ठचोद० सव्वलो० । असंखें - ज्जगुणवड्डि-हाणी खेत० । असादादिदस० तिण्णिव ड्डि-हाणि अवट्टि ०६० - अवत्त० अट्ठचोह ० सव्वलो० । वरि अजसगि० अवत्त० अट्ठ-तेरह चॉद्दस० । अपचक्खाणा ०४ सव्वपा णाणावरण भंगो । वरि अवत्त ० छच्चो६० । इत्थि० - पंचसंठा० - ओरालि० अंगो० वायुकायिक और वादरायुकायिक अपर्याप्त जीवों के जानना चाहिये । बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक और बादर अग्निकायिक तथा उनके बादर अपर्याप्त और बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक अपर्याप्त जीवोंका भङ्ग बादर एकेन्द्रियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि जहाँ लोकका संख्यातवाँ भाग कहा है, वहाँ लोकका असंख्यातवाँ भाग कहना चाहिये । ६४१. पचेद्रियद्विक और सद्विक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी तीन वृद्धि और तीन हानि पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवडे चौदह राज और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, नपुंसक वेद तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, दुर्भग, अनादेय और नीच गोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि मिध्यात्वके वक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और कुछ कम बारहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर आदि नौ, परघात, उच्छ्वास, पर्याप्त और प्रत्येकके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का भङ्ग क्षेत्रके समान है। तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । असातावेदनीय आदि दसकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि अयशःकीर्तिके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठवटे चौदह राजू और कुछ कम तेरहबड़े चौदह राजू क्षेत्र का स्पर्शन किया है । अप्रत्याख्यानावरण चारके सब पदोंका भङ्ग ज्ञानावरण के समान हैं । इतनी विशेषता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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