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________________ २६६ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे ६४४. अणुदिस याव सव्वह ति सव्वत्थोवा मणुसायु० उ०हि०। यहि० विसे । हस्स--रदि-जसगि० उहि [अ-] संखेंजः । यहि विसे० । सादा० उ.हि. विसे । यहि विसे । पंचणोक० -मणुसग०-तिएिणसरीर-अजस०-उच्चा० उहि विसे । यहि विसे० । पंचणा--छदसणा--असादा०--पंचंत० उ.हि. विसे । यहि विसे । बारसक० उ०हि. विसे । यहि विसे । ६४५. पंचिंदिय-तसपज्जत्त-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-इत्थिवे०-पुरिसणस०-कोधादि०४-चक्खुदं०--अचक्खुदं०-भवसि०--सरिण-आहारए त्ति मूलोघं । ओरालियकायजोगि० मणुसिणिभंगो। ६४६. ओरालियमि० सव्वत्थोवा दोआयु० उ०हि० । यहि० विसे० । देवगदिवेउव्विय उहि असंखेज । यहि. विसे । पुरिस०-उच्चा० उ.हि. संखेंज । यट्टि० विसे० । इत्थि. उढि० विसे० । यहि विसे० । [सेसा०] अपज्जत्तभंगो ! वेउव्वियका०-चेउब्धियमि० देवोघं । ६४७. आहार०--आहारमि० सव्वत्थोवा देवायु० उ०हि । यहि विसे । हस्स--रदि--जसगि० उ.हि. संखेंज । यहि० विसे० । सादा० उ.हि. विसे । ६४४. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य, रति और यशःकीर्तिका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सातावेदनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकषाय, मनुष्यगति, तीन शरीर, अयश-कीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानाचरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे बारह कपायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। ६४५. पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, प्रसपर्याप्त, पाँचों, मनोयोगी पाँचों, वचनयोगी, काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंमें मूलोघके समान भङ्ग है । औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्यिनियोंके समान भङ्ग है। ६४६. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें दो आयुओंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवगति और वैक्रियिक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अपर्याप्तकोंके समान है। वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवों में सामान्य देवोंके समान भङ्ग है ।। ६४७. आहारक काययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य, रति और यशस्कीतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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