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________________ २७४ महाधे ट्ठिदिबंधाहियारे हिदि० विसे० । यद्विदि० विसे० । सादि० उक १० हिदि० विसे० । यहिदि० विसे० । खुज्ज० उ० हिदि० विसे० । यद्विदि० विसे० । वामण० उक्क० द्विदि० विसे० । यहिदि० विसे० ० । हुड० उक्क० हिदि० विसे० । यहिदि० विसे० । सव्वत्थोवा आहार • अंगो० उक्क हिदि० । यहिदि० विसे० । दोरणं अंगो० उक्क० द्विदि० संखेज्ज० । यहिदि० विसे० । । ५६५. जहा संठाणाणं तहा संघडणारणं । जहा गदीरणं तहा आणुपुव्वीणं । सव्वत्थोवा पसत्थ० उक० द्विदि० । यद्विदि० विसे० । अप्पसत्थ० उक्क० द्विदि० विसे० । यहिदि० विसे० । सव्वत्थोवा मुहुम- अपज्जत्त - साधारणाएं उक्क० हिदि० । यहिदि० विसे० । बादर - पज्जत्त- पत्तेय० ० उक्क० हिदि० विसे० । यद्विदि० विसे० । सव्वत्थोवा थिरादिछ उच्चा० उक्क० हिदि० । यहिदि० विसे० । अथिरादिछ० - णीचा० उक० हिदि० विसे० । यहिदि० विसे० । एवं ओघभंगो पंचिंदिय-तस० २- पंचमरण०-- पंचवचि०. कायजोगि - पुरिसवे ० - कोधादि ०४ - चक्खु ० -अचक्खु०- भवसि ० - सरिण - आहारए ति । ५६६. आदेसेण णेरइएस पंचरणा०-वदंसणा ० -दो आयु पंचिंदि० ओरालि०तेजा ० - ० - ओरालि० अंगो० --वरण ०४ - गु०४- उज्जो ० --तस०४- णिमि०-- तित्थय ० इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्वातिसंस्थानका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे कुब्जक संस्थानका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वामन संस्थानका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हुण्ड संस्थानका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । श्राहारक श्राङ्गोपाङ्गका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे दो श्रङ्गोपाङ्गोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । ५९५. पहले जिस प्रकार संस्थानोंका श्रल्पबहुत्व कह आए हैं, उसी प्रकार संहननोंका कहना चाहिए। तथा जिस प्रकार गतियों का कह आये हैं, उसी प्रकार आनुपूर्वियां का कहना चाहिए । प्रशस्त विहायोगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अप्रशस्त विहायोगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे बादर, पर्याप्त और प्रत्येकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । स्थिरादि छह और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे अस्थिरादि छह और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार ओघके समान पञ्चेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, पुरुषवेदी, क्रोधादि चार कपायवाले, चक्षुदर्शनी, श्रचतुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और श्राहारक जीवोंके जानना चाहिए । ५९६. आदेशसे नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो आयु, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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